मशीन सूंघेगी बीमारों की बीमारी
२८ जनवरी २०१०जब कुत्ते भी सूंघ कर बता सकते हैं कि किसे कैंसर है और किसे नहीं. तो ऐसे में वैज्ञानिक और इंजीनियर ही क्यों पीछे रहते. जर्मनी में येना शहर के विश्वविद्यालय अस्पताल के डॉ. मथियास गौएर्निश कुछ तकनीशियनों और सॉफ़्टवेयर विशेषज्ञों के सहयोग से एक ऐसी मशीन बनाने में लगे हैं, जो सूंघ कर बता सकती है कि किसे कौन-सी बीमारी है.
वह बताते हैं. "कई रोगी रोग के अनुसार एक ख़ास तरह की गंध पैदा करते हैं. उदाहरण के लिए, जिसे गुर्दे की बीमारी है, जो मधुमेह का रोगी है, उस के शरीर से एसिटोन जैसी एक ख़ास क़िस्म की गंध आती है. यकृत की बीमारी वाले के शरीर से भी ऐसी ही एक अलग गंध आती है."
वैसे तो हर डॉक्टर भी कुछ बीमारियों को किसी हद तक सूंघ सकता है, लेकिन यह इस पर निर्भर करता है कि उसकी नाक कितनी संवेदनशील है और वह सूंघ कर बीमारियां पहचानने का कितना अनुभवी है. येना के तकनीकी महाविद्यालय के प्रो. अंद्रेयास फोस का मत है कि एक इलेक्ट्रॉनिक नाक इसी काम को आदमी की अपेक्षा कहीं सटीक और बेहतर ढंग से कर सकती है. उससे वे भूलें नहीं होंगी, जो आदमी से हो सकती हैं
ऐसी किसी मशीनी नाक के सेंसर, यानी गंध संवेदक बिजली के ऐसे अर्धचालकों (सेमीकंडक्टरों) के बने होते हैं, जिनका विद्युतप्रतिरोध (रज़िस्टैंस) उस समय बदल जाता है जब उनकी ऊपरी सतह कुछ ख़ास क़िस्म के अणुओं के संपर्क में आती है. वे किन अणुओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हैं और किन के प्रति नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि अर्धचालक किस सामग्री का बना है और तापमान क्या है.
कुछ गिनेचुने अणुओं का ही सेंसर वाले अर्धचालक के संपर्क में आना काफ़ी है. वह तुरंत पहचान जाता है कि वे किस बीमारी की तरफ़ इशारा कर रहे हैं.
इस मशीनी नाक को बनाने वाले प्रो. फ़ोस कहते हैं कि उनकी मशीन कुत्ते की नाक से भी बढ़चढ़ कर है, हालांकि कुत्ते की नाक भी मनुष्य की नाक की अपेक्षा कई हज़ार से एक लाख गुना तक तेज़ होती है.
उनकी बनाई कृत्रिम नाक न केवल गुर्दे की बीमारियों को ही सूंघ सकती थी, बल्कि यह भी बता सकती थी कि बीमारी कितनी गंभीर है. उनके मुताबिक़, "स्वस्थ लोगों और गुर्दे की कमज़ोरी से पीड़ितों के बीच वह शतप्रतिशत अंतर कर सकती थी. बीमारी के हल्के और गंभीर रूप के बीच सही अंतर का अनुपात 95 प्रतिशत था."
यह मशीनी नाक यकृतशोथ (लिवर सिरॉसिस) से पीड़ितों और गांजे-चरस के नशेड़ियों की भी शतप्रतिशत पहचान कर सकती है. उसे बनाने वाले येना शहर के जर्मन वैज्ञानिक अब इस प्रयास में हैं कि वह शरीर से आ रही गंध के आधार पर हृदयरोग को भी पहचान सके. आदमी की नाक हृदयरोग का इशारा करने वाली किसी गंध को बिल्कुल नहीं पहचान सकती.
डॉ. गौएर्निश बताते हैं कि दिल के रोगियों के शरीर से भी एक विशेष प्रकार की गंध आनी चाहिए. उनके अनुसार, "हृदय रोगियों की शारीरिक क्षमता बहुत थोड़े समय में ही घट जाती है. जैसे ही ऐसे किसी रोगी की चयापचय क्रिया (मेटाबॉलिज़्म) को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती, तो उसकी नसें अकड़ने लगती हैं.
तब उसकी चयापचय क्रिया, उदाहरण के लिए, लैक्टेट पैदा करने लगती है, जो कुछ ख़ास क़िस्म के अणु त्वचा की तरफ़ पहुंचाते हैं. इन अणुओं को मशीनी नाक के सेंसर पकड़ सकते हैं."
लैक्टेट कहते हैं लैक्टिक ऐसिड यानी दुग्धाम्ल में पाए जाने वले नमकों को. जब भी हम कोई मेहनत का काम करते हैं और शरीर को अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ती है, तब शरीर में लैक्टेट का बनना भी बढ़ जाता है. हृदय रोगियों में उस की मात्रा बढ़ने का कारण यही है कि उनकी शारीरिक क्षमता घट जाने से उन्हें हर काम भारी लगने लगता है.
लेकिन, शरीर से आ रही गंध के आधार पर हृदय रोग की पहचान के लिए आवश्यक तथाकथित पैरामीटर अभी तय नहीं हो पाये हैं. डॉ. गौएर्निश कहते हैं, "हम समझते हैं कि हम हृदय रोगों की पहचान का रास्ता भी इसी चिप के आधार पर निकाल लेंगे. वैसे, यदि ज़रूरी हुआ तो वर्तमान सेंसर चिप में फेरबदल भी हमारे लिए कोई बड़ी समस्या नहीं है."
यानी वह दिन दूर नहीं, जब इससे पहले कि डॉक्टर रोगी को अपने कमरे में बुलाए, एक मशीनी नाक आ कर हर रोगी को सूंघेगी और डॉक्टर को पहले ही बता देगी कि किस रोगी को कौन सी बीमारी है.
रिपोर्टः राम यादव
संपादनः ए कुमार