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मत: बालकान देशों से सबक लें

क्रिस्टोफ हासेलबाख/एसएफ५ अगस्त २०१५

यूरोपीय शरणार्थी नीति का अहम मकसद लोगों को उनके अपने देश में रहने के अवसर देना है. लेकिन डॉयचे वेले के क्रिस्टोफ हासेलबाख के मुताबिक बालकान देशों का उदाहरण दिखाता है कि ऐसा करना व्यवहार में कितना मुश्किल है.

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तस्वीर: Sean Gallup/Getty Images

ना सिर्फ यह तर्क काबिले तारीफ है, बल्कि यह एक तरह का फार्मूला है जिसपर जर्मनी की सभी राजनीतिक पार्टियां और अन्य ईयू देश भी एकमत होते हैं जब बात शरण नीतियों की होती है. उनका मकसद है शरण मांग रहे लोगों के देश की हालत में सुधार करना ताकि उनके पास अपने देश को छोड़ कर कहीं और जाने के कारण ना हों. यूरोप के राजनीतिज्ञ इस दूरगामी योजना पर जोर देते आए हैं. खासकर अफ्रीका को ध्यान में रखते हुए.

ईयू में शामिल होने की होड़

इससे कौन सहमत नहीं होगा? असल में, जैसे ही आप पश्चिमी बालकान देशों पर नजर डालते हैं इस मकसद में कामयाबी की संभावना पर शक होता है. अलबेनिया, बोसनिया-हैर्त्सेगोवीना, कोसोवो, मैसेडोनिया और सर्बिया, सभी ईयू में शामिल होना चाहते हैं. ब्रसेल्स ने उन्हें इसकी संभावना भी दिखाई है, बशर्ते वे राजनीतिक और आर्थिक कसौटी पर पूरे उतरें. मॉन्टेनीग्रो और सर्बिया इस दौड़ में मुख्य दावेदार हैं. वे ईयू में शामिल होने के लिए एक कदम आगे हैं.

Christoph Hasselbach
क्रिस्टोफ हासेलबाखतस्वीर: DW/M.Müller

बोसनिया-हैर्त्सेगोवीना का मामला अलग है. यहां के पारंपरिक समूहों की युगोस्लाव युद्ध के समय से दुश्मनी है. और ये संयुक्त राष्ट्र और ईयू के संरक्षण में हैं. साथ ही, यहां स्थायित्व, सामंजस्य स्थापित करने, सरकारी ढांचे बनाने और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के मामलों में खासा पश्चिमी प्रभाव है. ईयू के यूलेक्स मिशन के मुताबिक यह अहम है कि कोसोवो में प्रशासन, पुलिस और न्याय व्यवस्था का ढांचा तैयार किया जाए. अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक यहां अब तक काफी अव्यवस्था है.

20 साल का पुनर्निर्माणकाल

दूसरे शब्दों में, करीब 20 साल तक यानि युगोस्लाव युद्ध के अंत से ही अलबेनिया को छोड़ कर ईयू अन्य सभी देशों में पैसे, स्टाफ और अन्य तरीकों से सुधार की कोशिश कर रहा है, ताकि लोगों को अपने ही देश में रहने के मजबूत कारण मिल सकें.

आज हम यह कह सकते हैं कि 20 साल की स्थायीकरण की नीति, ईयू मानकों के हिसाब से, फेल हो गई. अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो इन इलाकों से हर महीने हजारों लोग भविष्य बनाने के लिए जर्मनी नहीं आ रहे होते. लेकिन अगर पश्चिमी बालकान में यह नीति फेल हो गई जहां हालात इतने विरोधी नहीं हैं, तो फिर हम पश्चिमी या उत्तरी अफ्रीका के मामले में किस तरह की उम्मीद कर सकते हैं?!

ब्रसेल्स के हाथ में कुछ नहीं

हालांकि इस बात से नाउम्मीद हो जाना या लक्ष्य को छोड़ देना भी गलत होगा. नाकामयाबी का एक कारण यह भी है कि ईयू अपने लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में लगनशील नहीं रहा.

उदाहरण के तौर पर सर्बिया की अल्पसंख्यक नीति. जर्मनी में शरण चाहने वाले अधिकांश सर्बिया वाले रोमा हैं. यहां तक जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल भी मानती हैं कि सर्बिया में रोमा समुदाय के साथ जबरदस्त भेदभाव होता है. दूसरी ओर जर्मन सरकार सर्बिया को एक सुरक्षित देश बताती है जहां ऊपरी तौर पर किसी तरह का अत्याचार नहीं है.

ईयू में जगह पाने की बड़ी शर्त है अल्पसंख्यकों की रक्षा. इसका मतलब है कि सर्बिया के मामले में ईयू के पास मोलतोल करने के सारे पैंतरे हैं. जुलाई में सर्बिया के प्रधानमंत्री अलेक्जांडर वूचिच ने मैर्केल को बताया कि शरणार्थी "साझा समस्या" हैं, जो ईयू से मदद की भीख मांग रहे हैं. रोमा के साथ भेदभाव को देखते हुए यह एक पाखण्डपूर्ण टिप्पणी है.

बेल्ग्रेड को साफ संदेश जाना चाहिए. जब तक आप अपने अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करते रहेंगे आप ईयू में शामिल होने के रास्ते में आगे नहीं बढ़ पाएंगे. ईयू को खुद आगे आकर यह संदेश पहुंचाना होगा.