1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

भावी पीढ़ी की शिक्षा का मापदंड

६ जुलाई २००९

शिक्षा का उद्देश्य क्या हो? क्या उसे सामाजिक-राजनीतिक मापदंडों पर आगे बढ़ाया जाए? डॉएचे वेले के हिंदी विभाग में इन सवालों पर भारतीय शिक्षाविदों से बात हुई.

https://p.dw.com/p/IiHD
कल की सोच के लिए शिक्षातस्वीर: India/Sandip Biswas

भारत में जर्मन सांस्कृतिक संस्था मैक्समूलर भवन के आमंत्रण पर वहां के शिक्षाविदों का एक प्रतिनिधिमंडल हाल में जर्मनी की यात्रा पर आया था. बॉन में डॉएचे वेले के हिंदी विभाग में भी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य आए हुए थे. बातचीत के दौरान भारत में शिक्षा नीति के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने प्रकाश डाला. हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष व हिंदी के प्रोफ़ेसर चमन लाल गुप्त की राय में हाल के वर्षों में इतिहास की पाठ्य पुस्तकों पर बहस कोई मौलिक बहस नहीं थी. उनकी राय में इतिहास खोज पर आधारित तो होना चाहिए, लेकिन उसका उद्देश्य भावी पीढ़ी को राष्ट्रीय परंपरा के साथ जोड़ना है. इसलिए इतिहास के कुछ अंश अगर अनावश्यक लगें, तो उन्हें छोड़ने की ज़रूरत है.

इसके विपरीत भारतीय माध्यमिक शिक्षा परिषद के संयुक्त सचिव व भौतिक शास्त्र के प्रोफ़ेसर पूरन चंद का कहना था कि बच्चों के सामने तैयार नतीजे पेश करने के बदले उनकी सोचने की शक्ति को प्रेरित करना कहीं अधिक ज़रूरी है. उनकी राय में सिद्धांतों के स्थान पर प्रक्रिया को आधार बनाना चाहिए, ताकि वे विकास की स्थिति को समझने के साथ साथ उसकी गति बढ़ाने के लिए अपने विचार और अपने दृष्टिकोण तैयार कर सकें.

भारत के शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल ने नए विचार पेश करते हुए शिक्षा नीति पर राष्ट्रीय बहस में तेज़ी ला दी है. वे हाल में जर्मनी के नगर लिंडाउ में एक कार्यक्रम में भाग लेने आए हुए थे. उनका प्रस्ताव दसवी कक्षा के बाद बोर्ड परीक्षा के बदले स्कूलों में परीक्षा के सिलसिले में था. दूसरी ओर, भारत में शिक्षा संबंधी बहस पिछले सालों के दौरान पाठ्यक्रम - ख़ासकर इतिहास के पाठ्यक्रम को लेकर चलती रही है. लेकिन कहीं न कहीं दोनों बहसो के बीच समानता है. वे एक मौलिक सवाल के इर्दगिर्द घूमती हैं कि शिक्षा का मकसद क्या हो? सामाजिक विकास और बच्चों के लिए ज्ञान के बीच क्या संबंध हो? कैसे भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में आ रही नई चुनौतियों का सामना करने के लिए शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाए जाएं. इस संदर्भ में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सामाजिक मूल्यों व आस्थाओं के प्रति निष्ठा का सवाल, उनके बीच विरोधाभास का सवाल भी अक्सर सामने आता है. लेकिन बहस जारी रहेगी, क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं है.

रिपोर्ट- उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन- राम यादव