भारत समेत कई देशों के चेहरे पर कलंक हैं एसिड हमले
१६ जुलाई २०१०एक तरफ बांग्लादेश में 2002 से एसिड से हमला करने वाले को मौत की सजा का कानून बना है तो कंबोडिया में अब भी ऐसे ज़्यादातर हमलावर बच जाते हैं. लेकिन अब वहां एक नया कानून बनाने के कोशिश हो रही है.
1983 में बांग्लादेश में पहली बार किसी एसिड हमले के बारे में पता चला. एसिड सस्ता है और हर देश में हर जगह मिल सकता है. सुनार या कार मैकनिक भी इसे अपने काम में इस्तेमाल करते हैं. इस साल कंबोडिया में 16 लोग एसिड हमले का शिकार बने हैं और पिछले पांच साल में कुल 103. भारत में आधिकारिक आंकड़ें तो मौजूद नहीं हैं, लेकिन इस विषय पर काम करने वाले संगठनों के मुताबिक हर साल 150 लोग इसका शिकार बनते हैं. अध्ययन कहते हैं कि एसिड हमले का शिकार बनने वालों में से 80 से 85 फीसदी महिलाएं हैं.
लेकिन गैर सरकारी संगठन कंबोडियन एसिड सर्वाईवर्स चैरिटी के मुताबिक कंबोडिया में सरकारी आंकड़ों के विपरीत कई गुना ज़्यादा महिलाएं इसका शिकार बनी हैं जिनके बारे में शर्म या फिर दूर दराज़ के इलाकों में होने की वजह से रिपोर्ट नहीं मिलती है. सीएंग लाप्रेस देश के गृह मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी हैं और नए कानून को लागू करने के लिए प्रस्ताव तैयार कर रहे हैं. वह कहते हैं, ''हम इस अपराध के बढ़ने पर 10 साल से नज़र रख रहे हैं. जब मामला इतना गंभीर नहीं होता है, तो सिर्फ कुछ ही बूंद असर करती हैं. इसके लिए हमलावर को सिर्फ 10 साल ही कैद किया जाएगा. लेकिन गंभीर मामलों में उम्रकैद तक हो सकती है. सरकार इस अपराध को लेकर बहुत ही गंभीर है. हम इसे और आगे नहीं बढ़ने देंगे. हम इस क्रूर अपराध की इजाजत नहीं दे सकते हैं कि वह हमारे समाज के लोगों को नष्ट कर दे.''
सीएंग लाप्रेस का कहना है कि बाज़ारों में एसिड की ब्रिकी भी सीमित की जाएगी. यदि एसिड का गलत इस्तेमाल होता है तो बेचने वाले की दोषी माना जाएगा. उम्मीद है कि 2010 के अंत तक इस कानून को लागू किया जाएगा.
जिआद सम्मन कंबोडिया एसिड सर्वाईवर्स चैरिटी में काम करते हैं. राजधानी प्नोम पेंह से बाहर महिलाओं को थैरपी मिल सकती हैं. वह कहते हैं कि एसिड इतना क्रूर हथियार है कि किसी महिला की त्वचा ही नहीं, उसकी हड्डियों को जलाने के लिए कुछ ही बूंदें पर्याप्त हैं. जो भी इसका शिकार बनता हैं उसे ज़िंदगी भर न सिर्फ बड़े दाग के साथ जूझना पड़ता है, बल्कि उसकी हड्डियों का आकार भी बदल जाता है. महिलाएं दृष्टिहीन तक हो जाती हैं. कइयों को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है. जिआद सम्मन बताते हैं, ''यह है हमारी फिजियोथेरेपिस्ट नक्री. वह एसिड के हमले में बची महिलाओं को ट्रेनिंग देती हैं. कइयों को चलना फिरना फिर से सीखना पडता है, खास कर जिनके पैर प्रभावित हुए हैं. चेहरे पर एसिड फेंके जाने के मामलों में उन्हें बोलने में भी परेशानी होती है. हम उन्हें अपनी शक्ति बढाने में मदद करते हैं, क्योंकि उनका घूमना फिरना पूरा खत्म हो जाता है.''
इसकी एक वजह यह भी हैं कि महिलाएं न सिर्फ विकलांग और दूसरों की मदद पर निर्भर हो जाती हैं बल्कि वे इसे एक कलंक भी समझती हैं, कभी-कभार सज़ा भी. समाज में भी वे अलग थलग हो जाती हैं. जब वे अपना चेहरा छिपाकर या बड़ा चश्मा पहनकर घर से बाहर निकलती हैं, तो कई बार उनका मज़ाक भी उडाया जाता है. ज़िंदगी भर उन्हें महंगी दवाइयां खानी पड़ती हैं, जिससे उन पर खर्च का बोझ भी पड़ता है.
जिआद सम्मन जैसे विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे लोगों को फिर से जीना सिखाना बहुत ही ज़रूरी है. अकसर जब कोई महिला किसी से शादी करने से इनकार कर देती है तो वह व्यक्ति उस पर एसिड से हमला कर देता है. ऐसे लोग महिला की खूबसूरती और ज़िंदगी को खत्म कर बदला लेना चाहते हैं और उनकी बात ठुकराने का सबक सिखाना चाहते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे हमले ज़्यादातर रूढ़िवादी या पुरूषप्रधान समाजों में देखने को मिलते हैं. खासकर जहां महिलाएं अब धीरे धीरे आत्मनिर्भर होने के प्रयास कर रही हैं, वहां भी ऐसी घटनाएं देखी गई हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में हाल के वर्षों में कई ऐसे मामले दर्ज किए गए, जब कट्टरपंथियों ने स्कूल जाने वाली लड़कियों पर एसिड फेंका. विशेषज्ञों का मानना है कि सिर्फ जागरूकता बढ़ाने और कड़ी सज़ा के साथ ही इसका अंत किया जा सकता है. बांग्लादेश ने एसिड हमले रोकने के लिए 2015 तक का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है. लेकिन कंबोडिया और भारत अभी इससे काफी दूर हैं.
रिपोर्ट: प्रिया एसेलबॉर्न
संपादन: ओ सिंह