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समाज

बढ़ रहे हैं रोड रेज के मामले

प्रभाकर मणि तिवारी
१६ मार्च २०१८

देश में बढ़ते सड़क हादसों के साथ रोड रेज यानी रास्ता चलते संघर्ष और मारपीट की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं. भारत में ऐसी घटनाओं में रोजाना औसतन तीन लोगों की मौत हो रही है.

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तस्वीर: ArenaCreative - Fotolia.com

समस्या की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए अब इससे निपटने के लिए ठोस कानून की मांग उठ रही है. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2016 में रोड रेज के 1643 मामलों में 788 लोगों की मौत हो गई जबकि 1863 लोग घायल हो गए थे. यह तो उन मामलों का आंकड़ा है जिनमें मारपीट या हिंसा हुई थी. वैसे, देश में रोड रेज के कुल मामलों की तादाद लगभग पांच लाख पहुंच गई है. यह तादाद सालाना दस फीसदी की दर से बढ़ रही है. हाल में लोकसभा में भी यह मामला गूंजा था.

सरकारी आंकड़े

केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2015 के दौरान देश में रोड रेज के 3782 मामले दर्ज किए गए. इनमें 4,702 लोग घायल हुए थे और 1388 लोग मारे गए थे. बीते साल रोड रेज के सबसे ज्यादा मामले ओडीशा में दर्ज किए गए. उसके अलावा केरल के चार शहरों और दिल्ली में ऐसे सबसे ज्यादा मामले सामने आए थे. ऐसे मामलों की सूची में पंजाब के लुधियाना व अमृतसर के अलावा उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर सबसे निचले पायदान पर हैं. दिलचस्प तथ्य यह है कि सड़कों पर सहयात्रियों के साथ मारपीट के मामले महज वयस्कों तक ही सीमित नहीं हैं. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2016 में रोड रेज के सिलसिले में 1538 किशोरों के खिलाफ भी मामले दर्ज हुए थे. इनमें से लगभग ढाई सौ किशोरों की उम्र तो 12 से 16 साल के बीच थी. केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक रोड रेज की घटनाओं की तादाद के मामले में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, केरल और उत्तर प्रदेश शीर्ष पांच राज्यों में शुमार हैं. राजधानी दिल्ली में भी ऐसे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं.

वजह

रोड रेज की घटनाओं के बढ़ने की वजह क्या है? परिवहन विशेषज्ञों का कहना है कि तेजी से बढ़ती आबादी, गांवों से शहरों में होने वाले विस्थापन, वाहनों की तादाद में वृद्धि, सड़कों के आधारभूत ढांचे का अभाव व ड्राइवरों में बढ़ती असहिष्णुता ऐसे मामले बढ़ने की प्रमुख वजहें हैं. कई सड़क हादसे ड्राइवरों की लापरवाही या ड्राइविंग के दौरान मोबाइल पर बात करने की वजह से होती है. असहिष्णुता का आलम तो यह है कि वाहन में जरा-सी टक्कर लगते ही मारपीट शुरू हो जाती है. दिल्ली हाईकोर्ट ने लगभग दो साल पहले ऐसे एक का संज्ञान लेते हुए दिल्ली पुलिस से हलफनामा दायर करने को कहा था. उस मामले में एक महिला और ट्रैफिक पुलिस के एक कांस्टेबल ने एक-दूसरे पर ईंटों से हमला किया था. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीषश जी रोहिणी व न्यायमूर्ति जयंत नाथ की खंडपीठ के समक्ष दायर हलफनामे में पुलिस ने कहा था कि सड़कों पर वाहनों की बढ़ती तादाद, सामाजिक व पारिवारिक जीवन में बढ़ते तनाव, ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर कड़ी सजा का प्रावधान नहीं होना और शराब पीकर वाहन चलाना ही रोड रेज की बढ़ते मामलों की प्रमुख वजह हैं.

कोलकाता के एक निजी बैंक में काम करने वाली शालिनी सिंह रोजाना लगभग 30 किमी का सफर तय कर अपने दफ्तर पहुंचती हैं. वह कहती हैं, "यहां ड्राइवर ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कर आसानी से बच निकलते हैं. मोबाइल फोन पर बात करते हुए ड्राइविंग करते देखना तो आम बात है." एक सेवानिवृत्त ट्रैफिक पुलिस अधिकारी मोहन कुमार आचार्या कहते हैं, "कई बार खास कर दफ्तर जाने के समय ट्रैफिक पुलिस वाले किसी को नियमों का उल्लंघन करते देख कर भी उसकी अनदेखी करते हैं. उनको लगता है कि दोषी वाहन चालक को रोकने की स्थिति में ट्रैफिक जाम हो सकता है. इससे दोषियों का कुछ नहीं बिगड़ता." वह कहते हैं कि जरूरत के मुकाबले पुलिस वालों की तादाद कम होना और नियमों के उल्लंघन के लिए कड़ी सजा का प्रवाधना नहीं होना भी ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन की सबसे बड़ी वजह है. रोड रेज की ज्याजातर घटनाएं भी इन नियमों के उल्लंघन से ही जुड़ी हैं.

अंकुश कैसे?

आखिर लगातार गंभीर होती इस समस्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है? विशेषज्ञों का कहना है कि यह समस्या बहुआयामी है. इसलिए इस पर अंकुश लगाने का कोई एक उपाय पूरी तरह कारगर नहीं हो सकता. लेकिन ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर सजा व जुर्माने के प्रावधानों को पहले के मुकाबले कठोर बना कर ऐसे मामलों पर कुछ हद तक काबू जरूर पाया जा सकता है. इसके साथ ही ड्राइवरों में जागरुकता अभियान चलाना जरूरी है. देश में सड़कों की लंबाई के मुकाबले वाहनों की बढ़ती तादाद ने इस समस्या को और गंभीर बना गिया है. मिसाल के तौर पर दिल्ली में बीते दो दशकों के दौरान वाहनों की तादाद में जहां 212 फीसदी की वृद्धि हुई है वहीं सड़कों की लंबाई महज 17 फीसदी बढ़ी है. इस वजह से लोगों को सड़कों पर पहले के मुकाबले ज्यादा देर तक रहना पड़ता है. इससे उनमें नाराजगी और हताशा बढ़ती है. ऐसे में अक्सर मामूली कहा-सुनी भी हिंसक झगड़ों में बदल जाती है. समाजविज्ञानी मनोहर माइती कहते हैं, "लोगों के पास अब पैसा तो आया है लेकिन सहिष्णुता तेजी से कम हुई है. ऐसे में सड़क पर अपनी नई कार पर हल्की खरोंच लगते ही लोग दोषी ड्राइवरों के साथ झगड़े व मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं."