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भारत में दयनीय ही है बच्चों की स्थिति

१ जून २०१७

प्रगति के लंबे-चौड़े दावों के बावजूद भारत में बच्चों की स्थिति दयनीय बनी हुई है. पहली जून को अंतरराष्ट्रीय बाल सुरक्षा दिवस के मौके पर विभिन्न संगठनों की ओर से जारी रिपोर्ट्स और आंकड़े इसकी भयावह तस्वीर पेश करते हैं.

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Indien Kinderarbeit Kinder arbeiten am Nehru Stadion in Neu Delhi
तस्वीर: Getty Images/D. Berehulak

भारत में हर साल अकेले कुपोषण से 10 लाख से ज्यादा बच्चों की मौत हो जाती है. कोई 10 करोड़ बच्चों को अब तक स्कूल जाना नसीब नहीं है. इसके साथ ही सामाजिक और नैतिक समर्थन के अभाव में स्कूली बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है. इसके अलावा खासकर बढ़ते एकल परिवारों की वजह से ऐसे बच्चे साइबर बुलिंग का भी शिकार हो रहे हैं. सेव द चिल्ड्रेन की ओर से विश्व के ऐसे देशों की एक सूची जारी की गई है जहां बचपन सबसे ज्यादा खतरे में है. भारत इस सूची में पड़ोसी देशों म्यांमार, भूटान, श्रीलंका और मालदीव से भी पीछे 116वें स्थान पर है. यह सूचकांक बाल स्वास्थ्य, शिक्षा, मजदूरी, शादी, जन्म और हिंसा समेत आठ पैमानों पर प्रदर्शन के आधार पर तैयार किया गया है. ‘चोरी हो गया बचपन' (‘स्टोलेन चाइल्डहूड') शीर्षक वाली यह रिपोर्ट देश में बच्चों की स्थिति बताने के लिए काफी है.

चीन से ज्यादा बच्चे

आबादी के मामले में भले ही पड़ोसी चीन भारत से आगे हो, बच्चों के मामले में भारत ने उसे पछाड़ दिया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक चार साल तक के बच्चों की वैश्विक आबादी का लगभग 20 फीसदी भारत में ही है. वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट में ऐसे बच्चों और उनकी हालत के बारे में कई गंभीर तथ्य सामने आए थे. लेकिन बीते पांच वर्षों के दौरान सुधरने की बजाय इस मोर्चे पर हालत में और गिरावट आई है. उन आंकड़ों में कहा गया था कि स्कूल जाने की उम्र वाले हर चार में से एक बच्चा स्कूल नहीं जाता. यह आंकड़ा 10 करोड़ के आसपास है.

बहुत से बच्चों को गरीबी और गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के चलते स्कूल का मुंह देखना नसीब नहीं होता तो कइयों को मजबूरी में स्कूल छोड़ना पड़ता है. देश में फिलहाल एक करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो पारिवारिक वजहों से स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ घर का काम करने पर भी मजबूर हैं. स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ताहाली के चलते छह साल तक के 2.3 करोड़ बच्चे कुपोषण और कम वजन के शिकार हैं. डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फार एजुकेशन (डाइस) की वर्ष 2014-15 में आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि हर सौ में महज 32 बच्चे ही स्कूली शिक्षा पूरी कर पाते हैं. इसी रिपोर्ट के अनुसार देश के महज दो फीसदी स्कूलों में ही पहली से 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की सुविधा है.

बाल मजदूरी

देश में बाल मजदूरी की समस्या भी बेहद गंभीर है. दो साल पहले बच्चों के लिए काम करने वाली एक संस्था क्राई ने कहा था कि देश में बाल मजदूरी खत्म होने में कम से कम सौ साल का समय लगेगा. इससे परिस्थिति की गंभीरता का अहसास होता है. वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट में देश में पांच से 14 साल तक के उम्र के बाल मजदूरों की तादाद एक करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान लगाया गया था. अब तक यह तादाद और बढ़ गई होगी. देश के कुछ हिस्सों में तो बच्चों की कुल आबादी का आधा मजदूरी के लिए मजबूर है. मोटे अनुमान के मुताबिक देश में फिलहाल पांच से 18 साल तक की उम्र के 3.30 करोड़ बच्चे मजदूरी करते हैं. बच्चों के हित में काम करने वाले संगठनों का कहना है कि पूरे देश में बाल मजदूरों की तादाद और उन पर होने वाले अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं.

चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन (मुंबई) के नीशीत कुमार कहते हैं, "पिछले आठ वर्षों में बाल मजदूरी के खिलाफ शिकायतों की तादाद तेजी से बढ़ी है. आंकड़ों से साफ है कि लोगों में बाल मजदूरी के खिलाफ जागरुकता बढ़ी है. लेकिन यह काफी नहीं है." वह कहते हैं कि संगठन के सर्वेक्षण से पता चला है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 18 साल या उससे कम के बाल मजदूरों का योगदान 11 फीसदी है.

कुमार कहते हैं, "नियोक्ताओं पर जुर्माने की रकम बढ़ाने से यह समस्या हल नहीं होगी. श्रम विभाग को बाल मजदूरों के बचाव और दोषियों को सजा देने का अधिकार होना चाहिए." इन संगठनों का कहना है कि बाल मजदूरी की समस्या को अलग नजरिये से देखना सही नहीं है. यह मुद्दा बाल सुरक्षा, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा के साथ जुड़ा है. इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए पहले उन वजहों को दूर करना जरूरी है जिनकी वजह से बाल मजदूर बनते हैं.

दूसरी समस्याएं

भारत में बच्चों को कई अन्य समस्याओं से भी जूझना पड़ रहा है. मिसाल के तौर पर बच्चे ही अपहरण के सबसे ज्यादा शिकार हैं. यहां हर आठ मिनट पर एक बच्चे का अपहरण हो जाता है. सरकारी आंकड़ों में कहा गया है कि बीते एक दशक के दौरान बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों में पांच गुनी वृद्धि हुई है. लेकिन गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है. परीक्षा में फेल होना बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की दूसरी सबसे बड़ी वजह के तौर पर सामने आई है. इसके अलावा बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं होना भी बच्चों की मौत की एक बड़ी वजह है.

यूनिसेफ की ओर से हाल में जारी रिपोर्ट द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन, 2016 में कहा गया है कि आर्थिक गतिविधियों में तेजी के बावजूद देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर भयावह है. वर्ष 2015 के दौरान देश में पैदा होने वाले ढाई करोड़ में से लगभग 12 लाख बच्चों की मौत ऐसी बीमारियों के चलते हो गई जिनका इलाज संभव है. इस मामले में भारत की स्थिति पड़ोसी बांग्लादेश और नेपाल के मुकाबले बदतर है. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में बच्चों की स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में बहुत कुछ करना बाकी है.

बच्चों के हित में काम करने वाले संगठन इस दयनीय स्थित पर गहरी चिंता जताते हैं. उनका कहना है कि केंद्र सरकार को राज्यों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर इस दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए. इसके लिए कानूनों में बदलाव के साथ-साथ सामाजिक तौर पर जागरुकता बढ़ाने के लिए अभियान चलाना होगा. एक संगठन होप कोलकाता फाउंडेशन की कोमल तरफदार कहती हैं, "यह सुनिश्चित करना होगा कि हर तबके के बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी मूलभूत सुविधाएं मुहैया हो सकें. मौजूदा तस्वीर को बदलने के लिए भारत को काफी कुछ करना है. लेकिन इसके लिए शीघ्र ही एक ठोस शुरूआत करनी होगी."

रिपोर्टः प्रभाकर