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भारत में गहरी है विज्ञान व तकनीक में लैंगिक खाई

प्रभाकर मणि तिवारी
६ अप्रैल २०१८

भारत में यूं तो लगभग हर क्षेत्र में लैंगिक असमानता दिखती है, लेकिन विज्ञान और तकनीकी विषयों में खाई कुछ ज्यादा ही गहरी है. देश के प्रमुख शोध संस्थानों के शीर्ष पदों पर महिलाओं की तादाद अंगुलियों पर गिनी जाने लायक है.

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NEW DELHI INDIA MAY 28 Students participate in a rally on World Menstrual Day at Connaught Place
तस्वीर: Imago/Hindustan Times

विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार की नीतियों और समाज की पुरुष-प्रधान मानसिकता को बदले बिना इस खाई को पाटना बेहद मुश्किल है. बंगलूर में पिछले दिनों आयोजित इंडियन फिजिक्स एसोसिएशन (आईपीए) के जेंडर इन फिजिक्स वर्किंग ग्रुप की पहली बैठक में लैंगिक असमानता पर कई चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए.

कम हैं महिलाएं

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लायड फिजिक्स ने वर्ष 1999 में ही वुमेन इन फिजिक्स वर्किंग ग्रुप का गठन किया था. वर्ष 2002 से हर तीन साल पर भौतिकी में महिलाओं के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार और वर्कशाप आयोजित किए जाते हैं. इनमें लैंगिक असमानता को दूर करने के उपायों पर भी चर्चा की जाती है, लेकिन बावजूद इसके हालात जस के तस हैं. देश के शीर्ष शिक्षा व शोध संस्थानों की फैकल्टी में महज 20 फीसदी महिलाएं हैं. केंद्र सरकार की आर्थिक सहायता पर चलने वाले संस्थानों की गवर्निंग काउंसिल में भी 83 पुरुषों के मुकाबले महज तीन महिलाएं हैं.

मुंबई स्थित शीर्ष विज्ञान संस्थान टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च में फिजिक्स डिपार्टमेंट में पीएच.डी. के लिए दाखिला लेने वाले 34 छात्रों में महज दो महिलाएं हैं. इस तथ्य के बावजूद कि ग्रेजुएट स्तर पर विज्ञान पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाली छात्राओं का राष्ट्रीय औसत 45 फीसदी है. इससे साफ है कि ग्रेजुएशन के बाद विज्ञान विषयों में उच्च-शिक्षा व शोध के क्षेत्र में महिलाओं की तादाद लगातार घटती जाती है. इस क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं का कहना है कि वैज्ञानिक संस्थानों की संस्कृति ही ऐसी है कि वहां महिलाओं का प्रवेश बेहद मुश्किल है.

क्या है वजह

आखिर ग्रैजुएट स्तर पर पुरुषों की बराबरी के बावजूद शोध के मामले में महिलाएं पिछड़ी क्यों हैं? दरअसल इसकी कई वजहें हैं. शोध संस्थानों में महिला छात्रों को भेदभाव के अलावा यौन उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है. वहां उनकी क्षमता पर बार-बार सवाल उठाए जाते हैं और कम अहमियत वाले पदों पर रखा जाता है. कोलकाता स्थित एसएन बोस नेशनल सेंटर फॉर बेसिक साइंसेज में वरिष्ठ प्रोफेसर तनुश्री साहा-दासगुप्ता कहती हैं, "ऐसे संस्थानों में यौन उत्पीड़न की घटनाएं आम हैं. लेकिन बदनामी व करियर की वजह से ज्यादातर घटनाएं सामने नहीं आ पातीं. इसकी बजाय लड़कियां चुपचाप करियर ही बदल देती हैं." वह कहती हैं कि कुछ मामलों में शिकायत के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं होती.

पुरुष-प्रधान मानसिकता की वजह से बाकी महिलाएं ऐसी घटनाओं की शिकायत करने से कतराने लगती हैं. तनुश्री का कहना है कि ऐसी घटनाओं की वजह से विज्ञान व शोध संस्थानों की छवि नकारात्मक बन गई है. इसके अलावा चिकित्सकीय अवकाश लेने में भी भारी दिक्कत होती है. प्रेसीडेंसी कालेज में विज्ञान की पूर्व लेक्चरर सुष्मिता विश्वास कहती हैं, "मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी मौजूदा पीढ़ी को भी वही सब समस्याएं झेलनी होंगी जो मेरी पीढ़ी की महिलाओं को झेलनी पड़ी थीं साफ है कि बीते कई दशकों में हालात में खास अंतर नहीं आया है. अब इस स्थिति में सुधार का समय आ गया है."

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

सर्वेक्षण

एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी आफ इंडिया (एएसआई) ने अब लैंगिक भेदभाव को अपने एजेंडे में शामिल कर एक साहसिक कदम उठाया है. दो साल पहले गठित लैंगिक समानता पर कार्यकारी समूह ने देश में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में लैंगिक समानता पर अपने पहले सर्वेक्षण में माना है कि खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी की पढ़ाई व शोध में जुटे संस्थानो में भारी लैंगिक भेदभाव है. ऐसे ज्यादातर संस्थानों में छात्राओं से लेकर महिला प्रोफेसरों की तादाद पुरुषों के मुकाबले नगण्य कही जा सकती है.

कार्यकारी समूह की सदस्य और नेशनल सेंटर फॉर रेडियो एस्ट्रोफिजिक्स में वैज्ञानिक प्रीति खर्ब कहती हैं, "पूरे देश में जब तक लैंगिक आंकड़े जुटा कर उनकी सतत निगरानी के जरिए खाई को पाटने के उपायों पर ठोस फैसला नहीं होता तब तक हालात में सुधार की गुंजाइश बेहद कम है. इसके अलावा हर स्तर पर जागरुकता बढ़ाना जरूरी है."

विशेषज्ञों का कहना है कि विज्ञान संस्थानों में नियुक्तियों में लैंगिक भेदभाव, शोध के मामले में महिलाओं की बजाय पुरुषों को तरजीह देना, यौन उत्पीड़न और घर-परिवार की ओर से समुचित समर्थन नहीं मिलने की वजह से ही विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी अब भी अपेक्षा से बहुत कम है. पूर्व प्रोफेसर मोहम्मद हफीज इसके लिए काफी हद तक सरकारी की नीतियों को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. वह कहते हैं, "विभिन्न क्षेत्रों में मौलिक शोध के लिए आर्थिक सहायता देने वाले चार सरकारी विभागों—डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, डिपार्टमेंट आफ बायोटेक्नोलॉजी, डिपार्टमेंट आफ अर्थ साइंसेज और काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च में अब तक महज एक महिला ही सचिव रही है. इसी तरह चिकित्सा के क्षेत्र में महिलाओं की भारी मौजूदगी के बावजूद अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च में भी महज एक-एक महिला ही निदेशक के पद तक पहुंची हैं."

बर्चस्व और उपाय

विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में देश में लंबे अरसे से उच्च तबके के लोगों का बर्चस्व रहा है. विज्ञान इतिहासकार आभा सूर ने अपनी पुस्तक डिस्पर्सड रेडिएंस में इस मुद्दे पर विस्तार से लिखा है. उनका कहना है कि भारत में ज्यादातर वैज्ञानिक उच्च जाति के हैं. ऐसे में महिलाओं खासकर निचले तबके की शोध छात्राओं के साथ भेदभाव कोई नया नहीं है. देश में वैज्ञानिकों को मिलने वाला शीर्ष शांति स्वरूप भटनागर अवार्ड अपनी शुरुआत से अब तक 517 पुरुषों को मिल चुका है लेकिन यह अवार्ड पाने वालों में महज 16 महिलाएं हैं. लैंगिक समानता का सवाल उठने पर मेरिट के आधार पर चयन की दलील दी जाती है.

बंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान में सीनियर बायोलॉजिस्ट संध्या विश्वेसरैया कहती हैं, "हर चीज समान होने पर इंटरव्यू लेने वाली समिति को महिलाओं का चयन करना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है." वह कहती हैं कि इस क्षेत्र में लैंगिक खाई को पाटने के लिए भारतीय संस्थानों को वियना विश्वविद्यालय से सीखना चाहिए. वहां नियुक्तियों के लिए ऑनलाइन विज्ञापन में साफ लिखा रहता है कि वरिष्ठ पदों पर महिलाओं की तादाद बढ़ाने की मुहिम पर खास जोर देने की वजह से महिला उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाएगी.

विज्ञान तकनीक के क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं ने मौजूदा तस्वीर बदलने के लिए कई सुझाव दिए हैं. उनका कहना है कि इसके लिए सांकेतिक प्रयासों से आगे बढ़ कर इस दिशा में ठोस पहल करना जरूरी है. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में न्यूरोबायोलॉजिस्ट डाक्टर संध्या कौशिक कहती हैं, "किसी भी 10-सदस्यीय चयन समिति में महज एक महिला सदस्य का होना काफी नहीं है. उसमें कम से कम तीन महिलाओं का होना जरूरी है. उसके बाद ही बदलाव शुरू होगा. लेकिन फिलहाल तो संस्थानों की ओर से इस दिशा में अब तक कोई ठोस पहल नहीं नजर आ रही है."