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भारत दक्षिण अफ्रीका में फुटबॉली कूटनीति

१३ जून २०१०

भोपाल गैस त्रासदी पर पहले फ़ैसले के साथ ही दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति की भारत यात्रा, बॉलीवुड फ़िल्म माई नेम इज़ ख़ान और पाकिस्तान में नाटो के काफ़िले पर भीषण हमला जर्मन मीडिया की दिलचस्पी के विषय बने रहे.

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विश्वकप का उद्घाटन करते राष्ट्रपति ज़ूमातस्वीर: AP

दक्षिण अफ्रीका में फुटबॉल विश्व कप शुरू होने से ठीक पहले वहां के राष्ट्रपति जैकब ज़ूमा ने भारत की यात्रा की. बर्लिन से प्रकाशित होने वाले समाजवादी दैनिक नोएस डोएचलांड ने इस यात्रा का मूल्यांकन करते हुए लिखा, "जैसी कि आशा थी, मेहमान और मेज़बान ने विश्वकप से कुछ ही दिन पहले थोड़ी-सी फुटबॉली कूटनीति भी खेली. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ज़ूमा के प्रति विश्वकप के आयोजन में सफलता की कामना की और दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति ने भारत को बधाई दी कि वह राष्ट्रमंडल खेलों का मेज़बान होगा. साथ ही सोनिया गांधी को फ़ुटबॉल के महोत्सव को देखने के लिए आमंत्रित भी किया. ..इस तरह दोनो पक्षों के बीच वार्ताओं का एक आदर्श वातावरण बन गया."

गोल गेंद गंदी

भारत के करोड़ों लोग फ़ुटबॉल के विश्व कप को केवल टेलीविज़न पर ही देख पायेंगे. उनका अपना देश खिलाड़ी देशों में शामिल नहीं होगा, हालांकि कि विश्वकप से पहले जो करोड़ों गेंदें बिकी हैं, उनका एक बड़ा हिस्सा भारत और पाकिस्तान में हाथ से बना है. ऑस्ट्रिया के दैनिक दी प्रेसे ने लिखाः

"भारत की गेंदें गोल तो हैं, पर गंदी भी. वे घरों में बनती हैं. पूरे परिवार का पेट पालती हैं. कई बार बच्चों को भी हाथ बंटाना पड़ता है, ताकि गेंदों की सिलाई से पूरे परिवार का निर्वाह हो सके. कारखानों में काम करने वाले उन मज़दूरों को कई बार न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं मिलती, जो सांचों सें इन गेंदों के टुकड़े काटते और उन पर बने रंगीन लोगो और विज्ञापनों पर पॉलिश चढ़ाते हैं."

गैस त्रासदी

Indien Bhopal Protest
तस्वीर: AP

भोपाल गैस त्रासदी के 26 वर्ष बाद किसी अदालत के पहले फ़ैसले पर जेनेवा के नोए त्स्युइरिशर त्साइटुंग का कहना थाः

"इस बीच सत्तर साल से अधिक के हो गये मैनेजरों को फ़ैसला सुनाने के तुरंत बाद ज़मानत पर रिहा भी कर दिया गया. समझा जाता है कि वे आगे अपील करेंगे और मुकदमों को अभी लंबा खींचेंगे... त्रासदी पीड़ितों की संस्थाएं बहुत नरम सज़ाओं से निराश हैं. वे आजीवन कारावास या मृत्युदंड तक की मांग कर रही थीं."

बंबैया दिल, दर्द और दीवानगी

शाहरुख़ ख़ान की नयी फ़िल्म माई नेम इज़ ख़ान ने जर्मनी के समाचार साप्ताहिक दी त्साइट का भी ध्यान खींचा है, जो जर्मनी का एक गंभीर व स्तरी पत्र है. पत्र का मानना है कि जो लोग शाहरुख़ ख़ान और बॉलीवुड फ़िल्मों की अब तक खिल्ली उड़ाया करते थे, वे भी धीरे-धीरे पिघलने लगे हैं:

"कभी न कभी वे सबको पिघला कर रहेंगे...अब तक फ़िल्म समीक्षक उनका नाम सुन कर मन ही मन मुस्कराते थे. बॉलीवुड और शाहरुख़ ख़ान का मख़ौल उड़ाते थे, क्योंकि वे बंबैया दिल, दर्द और दीवानगी का मूर्तरूप बन गये हैं... तथ्य यह है कि आज जर्मनी में बहुत सारी महिलाएं एसआरके की मर्दानी अपील पर फ़िदा हैं; उनके..चुलबुलेपन और रूमानियत पर मुग्ध हैं... माई नेम इज़ ख़ान कोई ठेठ बॉलीवुड फ़िल्म है भी नहीं. उसमें न तो डांस हैं और न पानी के फ़ौव्वारों की बीच प्यार-मोहब्बत. लेकिन, कथानक में परिकथाओं जैसे वे असंभव मोड़ और अन्य चटपटे मसाले ज़रूर हैं, जो बुरे पर अच्छे की विजय को सुनिश्चित बनाते हैं. वह संगीत भी भरपूर है, जो हरेक को बताता है कि उसे अब क्या महसूस करना है. बर्लिन के फ़िल्म आलोचक एक तरफ़ तो कह रहे थे कि 'यह सब बिल्कुल नहीं चल सकता', और दूसरी तरफ़ अपनी आंखों के आँसू पोंछ रहे थे."

Shah Rukh Khan
शाहरुख़ डोएचे वेले के माइक परतस्वीर: Monika Jones

कागज़ी वादे

पर्यावरण और मनवाधिकारों की रक्षा को समर्पित एक जन-अदालत ने मौक़े पर जा कर मुआयना करने और ग्रामीणों की बातें सुनने के बाद नर्मदा बांध और सरदार सरोवर परियोजना की कड़ी आलोचना की है. अदालत इस नतीजे पर पहुँची कि विस्थापितों के पुनर्वास की सारी बातें क़गज़ी हैं. दैनिक नोएस डोएचलांड का कहना था:

"सरकारी नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण और नर्मदा विकास अधिकरण के प्रतिनिधि भी मुआयनों के लिए आमंत्रित थे, पर कोई आया नहीं. वे लंबे समय से जनता को यही पट्टी पढ़ा रहे हैं कि मुआवज़े, पुनर्वास और सामाजिक सहायता तथा पर्यवरण रक्षा के सारे वादे पूरे किये जायेंगे."

तालिबान अब भी बलवान

पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के पास तालिबान के लड़ाकों ने जिस तरह नाटो के लिए रसद ले जारहे ट्रकों के काफ़िले को तहसनहस कर दिया, उसे अपना विषय बनाते हुए नोए त्स्युरिशर त्साइटुंग ने लिखाः

"यह नया हमला इस बात का एक और संकेत है कि पाकिस्तान में आंतरिक सुरक्षा की हालत इस समय कितनी संगीन है... पिछले हमलों की तरह नया हमला भी यही दिखाता है कि विद्रोही अफ़गानिस्तान में नाटो के लिए रसदपूर्ति में अब भी बाधा डाल सकते हैं."

संकलन- अना लेमान / राम यादव

संपादन- उज्जवल भट्टाचार्य