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धर्म के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी: सुप्रीम कोर्ट

मारिया जॉन सांचेज
२ जनवरी २०१७

सिद्धांत और वास्तविकता का कोई नाता ही न रहे तो सिद्धांत को एक बार फिर रेखांकित करना अनिवार्य हो जाता है. कुलदीप कुमार का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण मामले में अपना फैसला सुनाकर ठीक यही काम किया है.

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Indien Oberstes Gericht in Neu Delhi
तस्वीर: picturealliance/AP Photo/T. Topgyal

भारत के धर्मनिरपेक्ष यानी सेकुलर चरित्र की दो टूक ढंग से पुनः पदप्रतिष्ठा करते हुए सात सदस्यों की एक खंडपीठ ने स्पष्ट कर दिया कि धर्म का राजनीति में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और जाति, नस्ल, भाषा और धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते. अगले कुछ माह में उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इस फैसले का इन चुनावों पर तात्कालिक और देश की राजनीति पर तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. इस फैसले से एक बार यह आश्वस्ति भी हो गई कि देश की सर्वोच्च अदालत संविधान के बुनियादी मूल्यों की रक्षा करने के अपने उत्तरदायित्व के प्रति गंभीर है.

लेकिन यह आश्वस्ति पूरी नहीं, अधूरी है क्योंकि सात न्यायाधीशों वाली इस खंडपीठ ने अपना फैसला सर्वसम्मति के बजाय बहुमत के आधार पर लिया है और बहुमत भी सिर्फ एक वोट का है. सुप्रीम कोर्ट के तीन जज इस राय के हैं कि इस फैसले से लोकतंत्र एक अमूर्तन भर बन कर रह जाएगा क्योंकि फिर राजनीतिक दल और नेता लोगों के वास्तविक सरोकारों को सार्वजनिक और चुनावी चर्चा में नहीं ला सकेंगे. इन तीन जजों की यह राय भी है कि यह फैसला एक प्रकार से कानून का पुनर्लेखन करता है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के सामने उसके 1995 के फैसले में दी गई हिन्दुत्व की व्याख्या, कि यह एक धर्म नहीं बल्कि जीवनपद्धति है, पर पुनर्विचार करने का काम नहीं था, लेकिन उसके सोमवार के फैसले को 1995 के संदर्भ में भी देखा जा रहा है क्योंकि इस फैसले के कारण हिन्दू समुदाय को चुनाव प्रचार के दौरान आसानी से संबोधित किया जा सकता था. 

वास्तविकता यह है कि चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम या सिख, सभी धर्म के सहारे चुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं. पंजाब में अकाली राजनीति की आधारशिला ही सिख धर्म पर रखी है और इसमें शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की विशेष भूमिका रहती है. इसी तरह चुनाव में जाति और भाषा भी अपनी भूमिका निभाते रहे हैं. अतीत में देखा गया है कि चुनाव आते ही ऊंची जातियों से लेकर पिछड़ी और निचली जातियों तक के जाति-आधारित संगठन सक्रिय हो जाते हैं. केवल पिछड़े दलों और दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां ही जाति के आधार पर वोट नहीं मांगतीं, ऊंची जातियों के उम्मीदवार भी ऐसा ही करते हैं. सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद ऐसी जाति-आधारित राजनीति पर भी अंकुश लगेगा, बशर्ते उसके फैसले पर अमल किया जाए.

दरअसल भारत में सेकुलर और जातिविहीन राजनीति करना सबसे मुश्किल काम है. नवंबर 1949 में भारत का संविधान बना और 26 जनवरी 1950 से वह लागू हुआ. इसकी पृष्ठभूमि में धर्म के आधार पर हुआ देशविभाजन था जिसके कारण करोड़ों हिन्दू, मुसलमान और सिख अमानुषिक हिंसा और अत्याचार के शिकार हुए थे. उनके जख्म हरे थे और हिंदुओं और सिखों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि जब धर्म के आधार पर पाकिस्तान बना है तो फिर भारत को धर्मनिरपेक्ष क्यों बनाया जा रहा है. आज भी बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो इस सवाल को उठाते रहते हैं. लेकिन देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे नेता बखूबी समझते थे कि अनेक भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों वाला देश भारत यदि अपने चरित्र में सेकुलर न हुआ और किसी एक धर्म से जुड़ गया तो यह अंततः एक नहीं रह पाएगा.

उनकी इस दूरदर्शिता के कारण ही भारत हिन्दू राष्ट्र बनने से बच गया. लेकिन इसी के साथ उन्होंने भारत में हर वयस्क को मताधिकार देने का निर्णय भी लिया. एक ऐसे देश में जहां गरीबी और अशिक्षा चारों ओर फैली हुई हो और जहां समाज में सामंती चेतना और मूल्य जड़ जमाये बैठे हों, वहां यह एक क्रांतिकारी कदम था. उस समय कई विकसित देशों में भी ऐसी व्यवस्था नहीं थी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही था कि गरीब और अशिक्षित वोटर के पास चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को परखने की कोई कसौटी नहीं थी. उनके पास जाति, समुदाय, क्षेत्र और धर्म की पारंपरिक निष्ठाएं थीं जिनके आधार पर वे वोट दे सकते थे. चुनावी राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण के लिए यह स्थिति बहुत हद तक जिम्मेदार थी.

लेकिन अब हालत इतनी बुरी नहीं है. आज देश वहीं नहीं है जहां 1950 में था. इसके अलावा वह धर्म का इस्तेमाल करने वाले सांप्रदायिक राजनीति के कारण होने वाली तबाही को भी झेलता रहा है. ऐसे में बेहतर तो यह होता कि राजनीतिक पार्टियां मिल बैठकर तय करतीं कि वे वोट लेने के लिए संकुचित स्वार्थों का सहारा नहीं लेंगी और धर्म, जाति या भाषा के आधार पर वोट नहीं जुटाएंगीं. लेकिन क्योंकि वे ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है जो अपने आप में एक ऐतिहासिक फैसला है.