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भारत के लिए कितने सामयिक कार्ल मार्क्स

मारिया जॉन सांचेज
४ मई २०१८

कार्ल मार्क्स का जीवन और काम भारत के इतिहास के एक महत्वपूर्ण समय के साथ जुड़ा हुआ है. कुलदीप कुमार का कहना है कि मार्क्स की भारत में भी दिलचस्पी थी और उनके विचार औपनिवेशिक शोषण के अध्ययन में महत्वपूर्ण साबित हुए.

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200. Geburtstag Karl Marx
तस्वीर: picture-allilance/dpa/H. Tittel

कार्ल मार्क्स के जन्म को 200 वर्ष पूरे हो चुके हैं और इन दो शताब्दियों के दौरान दुनिया अनेक दृष्टियों से लगभग पूरी बदल चुकी है. लेकिन बुनियादी बातों में आज भी दो सौ साल पहले की दुनिया और आज की दुनिया में काफी समानता है. यह समानता ही वह कारण है कि मार्क्स आज भी एक चिंतक, अर्थशास्त्री और क्रांतिकारी के रूप में प्रासंगिक बने हुए हैं. भारत जैसे देशों में जहां अभी भी गरीबी, अशिक्षा और वर्गों एवं जातियों के बीच सामाजिक-आर्थिक विषमता बनी हुई है और राष्ट्र की पूंजी एवं संसाधनों पर मुट्ठी भर लोगों का स्वामित्व घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है, वहां मार्क्स की प्रासंगिकता भी कम होने के बजाय बढ़ी है. हालांकि सोवियत संघ के विघटन और समाजवादी प्रयोग की विफलता के बाद विकसित पश्चिमी देशों में मान लिया गया है कि समाजवादी विचारधारा और मार्क्सवाद का अंत हो चुका है, लेकिन वास्तविकता इससे काफी कुछ अलग है. मार्क्सवाद के कई रूप हैं और उनमें से कुछ की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी, भले ही वह समय और परिस्थितियों के अनुसार कम-ज्यादा होती रहे.

मार्क्स की शुरुआत दर्शन शास्त्र के अध्येता के रूप में हुई थी और शीघ्र ही वह इस निष्कर्ष पर आ गए कि अभी तक दर्शनशास्त्रियों ने दुनिया की केवल व्याख्या की है जबकि जरूरत इसे बदलने की है. उनका पूरा जीवन इस बदलाव की प्रक्रिया और तरीकों को खोजने, विश्लेषण करने और उसकी व्याख्या करने में बीत गया. जिस तरह वैज्ञानिक प्रकृति और उसके नियमों को समझकर इस ज्ञान का उपयोग प्रकृति पर नियंत्रण पाने के लिए करता है, उसी तरह मार्क्स का लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया के वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं को बदलने का था. किसी भी विचारक या वैज्ञानिक की तरह उनके सभी निष्कर्ष समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र के विस्तार की प्रक्रिया सतत रूप से जारी रहती है और इसी क्रम में न्यूटन के बाद आइंस्टाइन और आइंस्टाइन के बाद नील बोह्र जैसे क्वांटम भौतिकशास्त्री आते हैं. आज भी एक अर्थशास्त्री के रूप में मार्क्स के कई निष्कर्ष भले ही न माने जाते हों, लेकिन सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं और उनके आधार पर निर्मित होने वाले वैचारिक स्थापत्यों के अध्ययन की उनकी पद्धति को आज भी विश्व भर में अनेक बुद्धिजीवी अन्य पद्धतियों के मुकाबले अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय मानते हैं.

Ausstellung Das Koloniale Auge
तस्वीर: Staatliche Museen zu Berlin, Ethnologisches Museum

भारत जैसे देश में जहां हर क्षेत्र में विषमता है, जहां की बहुलतावादी संस्कृति को बहुमतवादी संस्कृति की ओर से खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है और जहां साम्प्रदायिक टकराव की स्थितियां लगातार पहले से अधिक गंभीर होती जा रही हैं, मार्क्स की प्रासंगिकता भी उसी अनुपात में बढ़ रही है. अब यहां की कम्युनिस्ट पार्टियां भी सोवियत संघ की तर्ज वाले बंद और अनेक वर्जनाओं से जकड़े समाज की स्थापना का लक्ष्य छोड़ चुकी हैं. उनका लक्ष्य अब अधिसंख्यक देशवासियों को समतामूलक समाजव्यवस्था और अर्थतंत्र उपलब्ध कराना है. इसके लिए पूंजी की तानाशाही को हटाने और श्रम करने वालों को उनके अधिकार दिलाने का मार्क्सवादी लक्ष्य आज भी उतना ही वैध और प्रासंगिक है जितना आज से एक या दो शताब्दी पहले थे. पिछली दो शताब्दियों में भारत ने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष करके राजनीतिक आजादी हासिल की और इस संघर्ष में मार्क्स के अनुयायियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. साहित्य, कला, संगीत और संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में मार्क्सवादियों का असाधारण योगदान रहा है. उनकी भूमिका आज भी समाप्त नहीं हुई है, बल्कि उसकी आवश्यकता पहले से भी अधिक महसूस की जा रही है.

भारत के साथ यूं भी मार्क्स का घनिष्ठ संबंध है. भले ही वह कभी भारत न आये हों, लेकिन 1857 की घटनाओं पर एक अमेरिकी अखबार के लिए भेजी उनकी रिपोर्टें आज भी ध्यान से पढ़ी जाती हैं क्योंकि ब्रिटिश प्रचार के विपरीत सैनिकों के विद्रोह में मार्क्स को भारत के स्वाधीनता संग्राम की चिंगारी सुलगती नजर आयी थी. मार्क्स ने औपनिवेशिक शासन की जैसी आलोचना की थी, वह बाद के अध्येताओं के लिए उपनिवेशवादी आर्थिक शोषण के अध्ययन में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई. बीसवीं शताब्दी में हुए ब्रिटिशविरोधी राष्ट्रीय आंदोलन में पहले कांग्रेस के भीतर रहकर और फिर बाहर रहकर कम्युनिस्टों ने महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका निभाई और अन्य विचारधाराओं वाले दलों और समूहों के साथ काम करने का अनुभव अर्जित किया. इसी के साथ यह भी सही है कि मार्क्स के रूसी अनुयायियों लेनिन और स्टालिन के विचारों और कार्यपद्धतियों का अंधानुकरण करने के कारण भारतीय मार्क्सवादियों को विफलता का सामना भी करना पड़ा. आज भी वे अपनी पुरानी गलतियों से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं. हिंदुत्व का जबरदस्त उभार और पश्चिम बंगाल एवं त्रिपुरा में मार्क्सवादियों को मिली अभूतपूर्व पराजय इसका ज्वलंत प्रमाण है.