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भारत के माथे कुष्ठ का कलंक

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता२२ अप्रैल २०१६

ज्यादातर देशों में कुष्ठ रोग का सफाया लगभग 15 साल पहले ही हो गया था. लेकिन कुछ देशों में अब भी यह बीमारी सामने आती रही है. हैरत यह है कि इसके 60 फीसदी से ज्यादा मामले भारत में ही होते हैं.

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तस्वीर: AFP/Getty Images

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल दुनिया के विभिन्न देशों से औसतन 2.14 लाख ऐसे मामले सामने आते रहे हैं. इन देशों की सूची में भारत शीर्ष पर है. कुष्ठ के 60 फीसदी मामले यहीं सामने आते हैं. संगठन ने वर्ष 2000 में प्रति दस हजार की आबादी में इस रोग की दर एक व्यक्ति से भी कम हो जाने के बाद दुनिया से इस रोग के सफाये का एलान किया था. लेकिन ताजा रिपोर्ट से साफ है कि ऐसे 94 फीसदी मामले महज 13 देशों से सामने आ रहे हैं और अब भी यह बीमारी खासी बड़ी आबादी को प्रभावित कर रही है.

ऐसे कुल मामलों में महज तीन देशों-भारत, इंडोनेशिया और ब्राजील का हिस्सा लगभग 81 फीसदी है. यह इस तथ्य के बावजूद कि इन तमाम देशों ने डब्ल्यूएचओ की ओर से कुष्ठमुक्त कहलाने के लिए 10 हजार की आबादी में एक से भी कम मामले का लक्ष्य हासिल कर लिया है.

भारत में स्थिति

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कुष्ठ-प्रभावित राज्यों की श्रेणी में शामिल होने के डर से देश के कई राज्यों में कुष्ठ रोगियों की सही तादाद सामने नहीं आती. बीते साल कुछ गैर-सरकारी संगठनों की ओर से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में ऐसे आधे मामले दबा दिए जाते हैं. भारत में फिलहाल सालाना औसतन कुष्ठ के 1.3 लाख नए मामले सामने आ रहे हैं. अब इस बीमारी को खत्म करने और इसकी चपेट में आने वालों के साथ होने वाला भेदभाव खत्म करने के लिए डब्ल्यूएचओ ने अपनी नई वैश्विक रणनीति के तहत संबंधित सरकारों से इस मामले में और मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देने की अपील की है. इसके तहत वर्ष 2020 तक कुष्ठ से पीड़ित बच्चों की तादाद घटाने और इसके चलते होने वाली शारीरिक विकलांगता दर को शून्य तक पहुंचाने का लक्ष्य तय किया गया है. इसमें संगठन ने कुष्ठ रोगियों से भेदभाव करने वाले तमाम कानूनों को बदलने की भी अपील की है.

Lepra in Indien
ऐसा जीवन जीने को मजबूर होते हैं कुष्ठ रोगीतस्वीर: AFP/Getty Images

अंकुश लगाने के उपाय

संगठन का कहना है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस बीमारी के लक्षण या इससे होने वाली विकलांगता के सामने आने से पहले ही इसका पता लगाने के लिए प्रभावी कदम उठाना जरूरी है. इसके साथ ही घनी आबादी वाले इलाकों और इससे प्रभावित समुदायों में इस बीमारी के खिलाफ बड़े पैमाने पर जागरुकता अभियान चलाना होगा. इसके अलावा सरकार को स्वास्थ्य सुविधाओं के आधारभूत ढांचे में सुधार करना होगा ताकि अधिक से अधिक लोगों और खासकर पिछड़े तबके को इसके दायरे में शामिल किया जा सके.

डब्ल्यूएचओ की दक्षिण-पूर्व एशिया की क्षेत्रीय निदेशक डा. पूनम खेत्रपाल सिंह कहती हैं, "हमारी नई वैश्विक रणनीति इस बीमारी का पता लगाने की प्रक्रिया तेज करने और इसकी जवाबदेही तय करने के साथ ही अधिक से अधिक लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने पर आधारित है. कुष्ठ पर अंकुश लगाने के तमाम प्रयासों में इन सिद्धांतों पर अमल करना जरूरी है."

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि देश के खासकर ग्रामीण इलाकों में अब भी इस बीमारी के बारे में लोगों में कई तरह की भ्रांतियां हैं. कुष्ठ के हल्के लक्षण नजर आते ही मरीज से अछूत जैसा बर्ताव होता है. उसके कपड़े-लत्ते और बरतन तक अलग कर दिए जाते हैं और उसे घर से बाहर किसी झोपड़ी में रहने को कह दिया जाता है. विशेषज्ञों के मुताबिक, इस बीमारी पर अंकुश लगाने के लिए पहले केंद्र, संबंधित राज्य सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को आपसी तालमेल से ग्रामीण इलाकों में जागरुकता अभियान चलाना होगा. लोगों को यह समझाना जरूरी है कि यह बीमारी न तो लाइलाज है और न ही जानलेवा. इसका इलाज संभव है. ऐसा नहीं होने तक देश के माथे पर लगे कलंक के इस धब्बे को मिटाना संभव नहीं होगा.