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बौने क़द की नई मानव प्रजाति

८ जून २००९

छह साल पहले इंडोनेशिया में बौने कद के एक ऐसे मनुष्य के अवशेष मिले थे, जिसने मानव विज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) के विद्वानों के बीच अपूर्व खलबली मचा दी. लंबी बहस के बाद अब सहमति बन रही है कि यह मनुष्य की नई प्रजाति के अवशेष हैं

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कंकालों के आधार पर चलता है मानव विकास का अध्ययनतस्वीर: AP

इंडोनेशिया के फ़्लोरेस द्वीप पर मिले इन अवशेषों को कुछ वैज्ञानिक अब तक अज्ञात एक बिल्कुल नए क़िस्म के मनुष्य के अवशेष बता रहे थे, तो कुछ किसी बीमारी के कारण पिग्मी जैसा छोटा रह जाने का उदाहरण. लेकिन, लेकिन ब्रिटेन की नेचर पत्रिका के अनुसार अब इस बात पर सहमति हो गई लगती है कि मानव जाति के विकास के क्रम में हमारे सामने मनुष्य की एक नयी प्रजाति के अस्तित्व का रहस्य खुल रहा है.

बात सितंबर 2003 की है. ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने एक दिन समाचार दिया, "ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के पुरातत्वविदों ने ऐसे अवशेष पाए हैं, जिन्हें मनुष्य की एक नयी स्पीसीस के अवशेष माना जा रहा है".

प्रजाति की परिभाषा

स्पीसीस कहते हैं प्रजाति को और प्रजाति की परिभाषा है, " साझे जीनों वाला जीव जंतुओं का ऐसा समूह, जो वंशवृद्धि के लिए अपने समूह के भीतर ही प्रजनन कर सके." दूसरे शब्दों में अपने समूह से भिन्न जंतुओं के साथ मेल से वह संतान पैदा नहीं कर सकता. बहुत-सी प्रजातियां इसी कारण अपना अस्तित्व बनाए रख नहीं पातीं और एक दिन लुप्त हो जाती हैं.

पुरातत्ववेत्ताओं और नृवंशविज्ञान के जानकारों के बीच सनसनी फैला देने वाले इस नए मनुष्य की प्रजाति को नाम दिया गया होमो फ़्लोरेसियेंसिस (Homo floresiensis), लैटिन भाषा में होमो कहते हैं मनुष्य को और फ़्लोरेस नाम है इंडोनेशिया के उस द्वीप का, जहां कोई 18 हज़ार साल पुराने ये अवशेष मिले थे. फ़्लोरेस के नाम पर ही इस नये मनुष्य को फ़्लोरेसियेंसिस कहा गया. उसे पुकार का एक छोटा सा उपनाम भी दिया गया होबिट (Hobbit).

किंबरली के भित्तिचित्रों ने सुराग दिया

होबिट के अवशेषों को एक गुफा से खोज निकाला था ऑस्ट्रेलिया में न्यू साउथ वेल्स की यूनीवर्सिटी ऑफ़ न्यू इंगलैंड के प्रोफ़ेसर माइक मोरवुड और उनके सहयोगियों ने. प्रो. मोरवुड को इससे पहले उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में किंबरली की गुफाओं में जानवरों के ऐसे प्राचीन भित्तिचित्र मिले थे, जिन में एक ऐसा भी जानवर था, जिसका ऑस्ट्रेलिया के जीवाश्म डेटा बैंक में कोई नामोनिशान नहीं मिलता, पर जो एशिया में सुपरिचित है. मोरवुड ने अनुमान लगाया कि गुफा में उस जानवर के चित्र उकेरने वाले एशिया से ही आए रहे होंगे, "एशिया के साथ संबंध किंबरली पेटिंगों में साफ़ झलकता है. यदि आपको पुरातत्व के सबसे आधारभूत सवालों में दिलचस्पी है, तो यही पूछेंगे कि वे लोग कब आये, कहां से आये, क्यो आये और कौन थे? "

प्रो़. मोरवुड का मानना है कि किंबरली के गुफा चित्र सात लाख साल पुराने हैं और संकेत करते हैं कि उन्हें बनाने वाले इंडोनेशिया के ही किसी द्वीप से आए होंगे. वह कहते हैं, "तो, इस तरह फ़्लोरेस से मेरा पहला रिश्ता शुरू हुआ. मेरा समझना था कि आधुनिक मनुष्य से पहले का कोई आदि मनुष्य ही ऐसा करने के सक्षम रहा होगा."

18 हज़ार साल पुराना कंकाल

होबिट अर्थात फ़्लोरेस मनुष्य़ का मुख्य कंकाल 30 साल की एक महिला का था. छह मीटर की गहराई पर मिला था और कार्बन कालनिर्धारण विधि के अनुसार 18 हज़ार साल पुराना था. वहां जो सबसे अंतिम हड्डियां मिलीं, वे 10 से 13 हज़ार साल पुरानी थीं. उन पर ज्वालामुखी उद्गार से निकली सफ़ेद राख की मोटी तहें जमी हुई थीं.

मानव जाति की इस अब तक अज्ञात प्रजाति के सदस्य केवल एक मीटर, यानी तीन फुट तक ही लंबे होते थे. उनका वज़न 30 किलो के आस पास होता था. वे पत्थर के औज़ार बनाते थे, आग जलना जानते थे, जानवरों का शिकार करते थे और कोई आठ हज़ार साल पहले तक-- यानी एक तरह से कल तक-- फ़्लोरेस द्वीम पर रह रहे थे.

नवजात बच्चे जैसा छोटा मस्तिष्क

वैज्ञानिकों को सबसे अधिक चक्कर में डालने वाली उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी खोपड़ी का बहुत छोटा आकार. उनकी खोपड़ी आजकल के किसी नवजात बच्चे से भी छोटी होती थी. उनके मस्तिष्क का आकार केवल 400 घन सेंटीमीटर (400 cc) जितना बड़ा होता था, आधुनिक मनुष्य (होमो सापियन्स) के दिमाग़ से तीन गुना छोटा. सिर की तुलना में पैर बड़े होते थे.

होबिट या होमो फ़्लोरेसियेंसिस-जैसे मस्तिष्क वाले दुपाए 25 से 30 लाख साल पहले अफ़्रीका में रहते थे. तो, क्या ये अफ़्रीकी पूर्वजों वाले लोगों के एशिया में मिले अवशेष थे? कई सवाल उठे. कई सिद्धांत पेश किए गए. एक यह कि होमिनीड अर्थात मानव परिवार की अब तक अज्ञात शायद एक एशियाई शाखा भी रही है, जिस के निशान अब तक केवल फ़्लोरेस में ही मिले हैं.

दूसरा यह कि हम अब तक आउट ऑफ़ अफ़्रीका थ्येरी, यानी मनुष्य अफ़्रीका से सारी दुनिया में फैला वाले सिद्धांत से इतने चौंधियाए रहे कि सवानास्तान जैसे अन्य विकल्पों की तरफ़ देखा ही नहीं. सवानास्तान से तात्पर्य है अफ़्रीका में सवाना कहलाने वाले घास के उन विस्तीर्ण मैदानों से, जो प्रागऐतिहासिक काल में अफ़्रीका से लेकर चीन तक फैले हुए थे और जिनसे हो कर बहुत सारे जानवर दूसरे महाद्वीपों पर पहुंचे थे. हो सकता है, मनुष्यों ने भी ऐसा ही किया हो.

मनुष्य का अभ्युदय एशिया में?

फ़्लोरेस के छोटे दिमाग़ वाले प्राचीन बौने मनुष्य ने, बड़े दिमाग़ वाले आजकल के लंबे चौड़े आदमी को सोचने पर विवश कर दिया कि मनुष्य जाति का अभ्युदय कहीं एशिया में हो तो नहीं हुआ? अब तक तो यह श्रेय केवल अफ़्रीका को दिया जाता रहा है. दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. मनोज सिंह भी बताते हैं, अफ़्रीका से निकलकर आदि मानव यूरोप और एशिया में पहुंचा. उनके शब्दों में, "अफ़्रीका से निकला, फिर इस्राएल में ओबैदिया नाम की जगह पर पहुंचा. जॉर्जिया के दमानीसी गया. एक रूट है मोरक्को से होकर स्पेन में ओर्से वैली का. इटली में एक नई खोज है पीरो नोर की कि वह सिसली से हो कर वहां पहुंचा. यूरोप की खोजें सबसे पुरानी हैं. भारत-पाकिस्तान में भी पहुंचा, पब्बी हिल्स नाम की जगह पर कोई 18 लाख साल पहले."

भारत में भी एक मिलता-जुलता अवशेष मिला है, लेकिन उसे कोई नयी मानव प्रजाति नहीं माना जा रहा है. मनोज सिंह कहते हैं, "हमारे पास केवल एक फ़ॉसिल है, जिसे नर्मदा मैन कहा जाता है. वह भी बहुत बाद का होमो इरेक्टस है. हमारा कहना है कि ये सब बहुत बाद के उत्तरजीवी हैं. उन्हें अलग प्रजाति का नाम देना अभी संदेहास्पद है. आज भी बीरहोर जो झारखंड में हैं, चेंचू जो आंध्रप्रदेश में हैं, जुआंग जो उड़ीसा में हैं, दूसरों से अलग थलग हैं. अभी भी जंगल में रह रहे हैं, रोज़ शिकार-संग्रह करने जाते हैं. कोई नया आदमी उन्हें देखेगा तो यही कहेगा कि दुनिया से कटेफटे हैं. देखने में हमारे जैसे ही हैं. लेकिन उनका रंग और वेशभूषा अलग है."

कॉकेशिया प्रबल करता है एशिया का पक्ष

बहुत संभव है कि कॉकेशियाई पर्वतों के बीच बसे जॉर्जिया में एशिया के पक्ष में नये प्रमाण मिले हैं. वहां प्रो. दावित लोर्त्कीपानिद्से को दमानीसी नामक स्थान पर एक ईसाई मठ के नीचे खुदाई में एक नहीं, चार ऐसी खोपड़ियां मिली हैं, जो फ़्लोरेस वाले बौने मनुष्य की तरह ही छोटी हैं, केवल 600 घन सेंटीमीटर बड़े मस्तिष्क के लिए जगह देती हैं. उन्हें अफ़्रीका के बाहर के प्रथम आदि मनुष्यों की कम से कम 17 लाख साल पुरानी खोपड़ियां बताया जा रहा है. प्रो. लोत्कीपानिद्से का कहना है कि वे एक ऐसे आदि मानव का अवशेष हैं, जो होमो इरेक्टस और होमो फ़्लोरेसियंसिस का पूर्वज रहा हो सकता है. दोनो आदि मानव हमें मानवजाति की विकासयात्रा की अनेक रोचक गाथाएं सुना सकते हैं.

होमो इरेक्टस 18 लाख साल पहले अफ़्रीका से चल कर एशिया में फैलना शुरु हुआ था. 15 से 16 लाख साल पहले वह इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर पहुंचा था, जो फ़्लोरेस बहुत दूर नहीं है. कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि ऊंचे क़द वाला होमो इरेक्टस ही फ़्लोरेस जैसे छोटे द्वीप पर रहते-रहते, समय के साथ बौना हो गया. जानवरों के माममले में अक्सर देखा गया है कि किसी एकांत द्वीप पर रहते रहते परिस्थितियों के अनुसार उनके बहुत छोटे या बडे़ विशिष्ट प्रकार के स्थानीय संस्करण भी बन जाते हैं.

नृवंशविज्ञान की डगमगाती नींव

जहां तक मानवजाति की 70 लाख वर्षों की विकासयात्रा का प्रश्न है, वैज्ञानिकों के सारे सिद्धांत अब तक केवल 200 खोपड़ियों, आधा दर्जन कंकालों और कुछ जीवाश्म टुकड़ों के अध्ययनों पर ही आधारित हैं. इन मुठ्ठी भर अवशेषों के आधार पर उनकी दो सबसे अटल मान्यताएं हैं. पहली यह कि अफ़्रीका में घास के सवाना मैदान ही मानवजाति का उद्गमस्थान हैं और दूसरी यह कि एक बड़े मस्तिष्क के विकास ने ही मनुष्य को अन्य जानवरों से श्रेष्ठ बनाया.

फ़्लोरेस का बौना आदमी इन दोनों स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहा है. आठ हज़ार साल पहले तक उसका अस्तित्व होना यही कह रहा है कि छोटे और बड़े मस्तिष्क वाली आरंभिक मनुष्य की अलग अलग प्रजातियां साथ-साथ इस धरती पर जी रही थीं. एशिया ऐसी ही कुछ प्रजातियों का उद्गम रहा हो सकता है. यह भी, कि मानव जाति का वर्तमान रूप विकास की किसी सीधी रेखा में चलता हुआ आज की जगह नहीं पहुंचा है, बल्कि शाखाओं-प्रशाखाओं से हो कर गुज़रा है.

इस विकासक्रम में एशिया के योगदान की अनदेखी नहीं होनी चाहिए, जैसा कि फ़्लोरेस के बौनों की खोज करने वाले प्रो. माइक मोरवुड का भी कहना है, "कुछ आलोचकों को इस सच्चाई को निगलना पड़ेगा, भले ही उनकी पहले से ही तय इस धारणा के साथ इसका मेल नहीं बैठता कि विकासवाद हमेशा सीधे ऊपर की ओर ही चलता है. होमो फ़्लोरेसियेंसेस उनके लिए लंबी बाहों, छोटी टागों और छोटे मस्तिष्क वाला एक ऐसा आदमी है, जिसे 12 हज़ार साल पहले यहां होने की कोई ज़रूरत नहीं थी."


रिपोर्ट- राम यादव, पुखराज चौधरी

संपादन- प्रिया एसेलबॉर्न