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बिन पानी पैदा होगा चावल

१६ सितम्बर २०१२

पानी नहीं, तो चावल नहीं. धान की खेती में बहुत ज्यादा पानी लगता है. भारत और एशियाई देशों में पानी के लिए सिर्फ बारिश का आसरा रहता है. धान की खेती न सूखे, इसके लिए अब कम से कम पानी में चावल उगाने की कोशिश हो रही है.

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तस्वीर: AP

न सिर्फ भारत, बल्कि पूरे एशिया में सबसे बड़ी फसल चावल ही मानी जाती है. फिलीपीन्स के लुजॉन द्वीप में करीब 2000 साल से पहाड़ीनुमा खेतों में खेती हो रही है. लेकिन अब फसल में वह दम नहीं. किसानों को दूसरे सहारे की जरूरत पड़ने लगी है. बरसों से चावल की खेती में लगे गेसलर बैनियान बताते हैं, "हमारे खेत की उपज परिवार का पेट ही नहीं भर पाती, मुनाफे की तो बात ही दूर. मुझे घर चलाने के लिए और पैसे चाहिए, जिसके लिए मुझे शहर जाना पड़ता है. लकड़ी तराश कर मैं थोड़ा कमा लेता हूं. सिर्फ धान की खेती करके घर चलाना अब संभव नहीं."

चावल से समस्या

ऐसे ही मुश्किलों से निपटने के लिए अब दूसरे तरीके निकाले जा रहे हैं. फिलीपीन्स की राजधानी मनीला के दक्षिण में धान रिसर्च संस्थान आईआरआरआई (ईरी) का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से अरबों लोगों तक अनाज नहीं पहुंच पा रहा है. लेकिन नई प्रजाति न सिर्फ उपज बढ़ाएगी, बल्कि उस पर मौसम के मिजाज का भी असर नहीं पड़ेगा.

Reisanbau in Indien
अभी काफी पानी की जरूरत है धान की खेती मेंतस्वीर: picture-alliance/dpa

मजेदार बात तो यह है कि रिसर्च से पता चला है कि चावल की खेती भी जलवायु परिवर्तन की एक वजह है. जर्मनी की एक टीम ईरी में चावल को लेकर गंभीर रिसर्च कर रही है. धान के खेतों में पानी भरा रहता है, जिससे ऐसी प्रतिक्रियाएं होती हैं, जिससे मीथेन गैस पैदा होती है.

इस रिसर्च से जुड़े जर्मन जीव विज्ञानी राइनर वासमान कहते हैं, "ये जीवाणुओं का काम है. वैसे तो ये बैक्टीरिया धान के खेत में जमा हुए ऑर्गेनिक मैटीरियल को विघटित करते हैं. कई बार जैविक खाद का इस्तेमाल होता है. लेकिन अगर पानी से भरे रहने पर मिट्टी को ऑक्सीजन नहीं मिलता तो वहां जैविक खाद में धीरे धीरे मीथेन गैस पैदा होने लगती है."

सूखने दीजिए खेत

मीथेन गैस के उत्सर्जन को रोकने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि धान के खेतों को बार बार सूखने दिया जाए. वासमान की राय है, "बहुत ही आसान है. ये जीवाणु ऑक्सीजन नहीं झेल पाते. जैसे ही ताजी हवा जमीन में जाती है मीथेन का निकलना रुक जाता है. इसमें एक और अच्छी बात हो सकती है. सूखने पर ऐसे जीवाणु काम करने लगते हैं जो मीथेन गैस पचा लेते हैं."

Reisanbau in Afrika
सूखी खेती के लिए प्रयोगतस्वीर: picture alliance/Godong

एक किलो धान के लिए करीब 5000 लीटर पानी की जरूरत होती है. खेतों में पानी भरने के और भी फायदे हैं. इससे खर पतवार नहीं उगती. लेकिन पानी लगातार कम हो रहा है. सिर्फ बरसात पर भरोसा नहीं किया जा सकता. इसलिए पंपों से पानी खेतों में डालना पड़ता है.

कैसे मिले पानी

बरसात के अलावा पानी सप्लाई के लिए सिंचाई हो सकती है, जिसके लिए पंपों की जरूरत पड़ती है. लेकिन इसके लिए ईंधन की जरूरत है. एक हेक्टेयर खेत में पानी भरने के लिए कम से कम तीन घंटे पंप चलाना पड़ेगा और इसमें 24 लीटर डीजल खर्च होगा.

इसी खर्च के कारण वासमान को उम्मीद है कि किसान उनकी खेती का इस्तेमाल कर लेंगे. इससे डीजल का खर्च बचेगा और मीथेन बनाने वाले जीवाणु भी खत्म हो सकेंगे. लेकिन वासमान का कहना है कि बहुत कम पानी भी फसल को बर्बाद कर सकती है. किसान को खेत पर नजर रखनी होगी.

बिन पानी वाली क्रांति

धान की सूखी खेती एक क्रांति है और मीथेन गैस का उत्सर्जन रोकने का आसान तरीका. ईरी में लगातार कोशिश की जा रही है कि धान की खेती पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना बनाई जा सके. कोशिश है कि धान भी मौसम की मार सह सके. हर दिन धान की नई नस्लें आ रही हैं और ईरी के बीज बैंक में पहले से ही धान के सवा लाख नमूने जमा हैं.

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तस्वीर: Fars

प्रयोगशाला में जीव विज्ञानी खास नमूनों के क्रॉस कर अच्छी नस्ल तैयार करने में लगे हैं. प्रयोग के लिए बनाए गए ईरी के खेतों में फिलहाल वह धान उगाया गया है जो जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी के बावजूद अच्छी उपज दे सकता है और चार अरब लोगों का पेट भर सकता है.

क्रांति से क्रांति तक

लुजॉन द्वीप के बनाउए पहाड़ियों पर 2,000 साल धान के खेत बनाना क्रांति थी. आज भी इससे कई परिवारों का पेट भरता है. कई पीढ़ियों ने मुश्किलों से सीख ली और नई नस्लें तैयार की और उपज बढ़ाई. तमाम मुश्किलों के बाद भी किसान बैनिनान खेती जारी रखना चाहते हैं, "हम धान की खेती करते रहेंगे. जब तक मैं जवान हूं अपने माता पिता की मदद करूंगा ताकि वे लंबे समय तक जिएं. धान की खेती के बारे में जानकारी हमें हमारे पुरखों से मिली है. वे भी इन पहाड़ों में खेती करते थे. यह हमें अपने बच्चों को भी सिखाना है."

रिपोर्टः कार्ल गियरश्टॉर्फर/आभा मोंढे

संपादनः ए जमाल