बदलते मौसम की मार महिलाओं पर
१७ दिसम्बर २००९कोपेनहेगन में इन दिनों जलवायु शिखर सम्मेलन चल रहा है और कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दुनिया भर के नेता माथापच्ची कर रहे हैं. बढ़ता तापमान अगर क़ाबू में न आ पाया तो उस स्थिति की भयावह तस्वीर पेश की जा रही है.
लेकिन जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाला तबक़ा, वो इन सब बहस मुबाहिसों से दूर है, आने वाले संकट और चुनौतियों से बेख़बर अफ़्रीका या एशिया के किसी दूरदराज़ के गांव में अपनी रोज़ी रोटी की तलाश में जुटा है.
महिलाओं की मुश्किलें
गरीब देशों में ग्रामीण इलाकों की जनता मुख्य रूप से खेती पर निर्भर है और इस काम में महिलाएं भी हाथ बंटाती हैं. सूखे या फिर बाढ़ के चलते उनकी आजीविका के साधनों पर बुरा प्रभाव पड़ता है. उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाता है.
भारत में 49 करोड़ लोगों की आय का स्रोत किसी ने किसी तरह खेती से जुड़ा है. मानसून में बदलाव या सिंचाई व्यवस्था सुचारू रूप से न होने से फ़सल प्रभावित होती है और महिलाओं के सामने परिवार का भरण-पोषण करने की चुनौती होती है.
शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएं इसलिए भी ज़्यादा प्रभावित होती हैं क्योंकि उनकी घरेलू अर्थव्यवस्था जंगल, खेती और प्राकृतिक संसाधनों पर टिकी रहती है. जंगलों की कटाई, फ़सलें नष्ट होने या प्राकृतिक संसाधनों की कमी के चलते परिवार को पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता. कई बार अपने बच्चों के लिए महिला अपने आहार पर ध्यान नहीं दे पातीं और कुपोषण का शिकार होती हैं.
घर में रोज़मर्रा के कामों के लिए पानी लाने और लकड़ी इकठ्ठा करने की ज़िम्मेदारी महिलाएं ही निभाती हैं. अगर गांव में तालाब या कुंआ सूख जाता है तो महिलाओं को पानी भरने के लिए दूर जाना पड़ता है. खाना बनाने के लिए उन्हें ही लकड़ियों का इंतज़ाम करना पड़ता है. जब प्राकृतिक आपदा आती है तो इन महिलाओं की मुश्किलें अकल्पनीय रूप से बढ़ जाती हैं.
घरेलू कामकाज में आने वाली मुश्किलों और उसमें लगने वाले समय के चलते लड़कियों के स्कूल जाने की संभावनाओं को झटका लगता है क्योंकि उन्हें भी इस काम में हाथ बंटाना पड़ता है.
एक अध्ययन में पता चला है कि 1970 के दशक में सूखे और बाढ़ के कारण लड़कियों के स्कूल या कॉलेज जाने की संभावना 20 फ़ीसदी कम हो गई. ऐसे में आशंका है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ते जाएंगे ग्रामीण महिलाएं और लड़कियां विकास की इस दौड़ में पीछे छूटती जाएंगी.
सूखे, बाढ़, सूनामी और अन्य आपदाओं का शिकार होने वाले लोगों में अधिकतर महिलाएं होती हैं. 2004 में सूनामी लहरों की तबाही का शिकार हुए लोगों में इंडोनेशिया के कई गांवों में तीन चौथाई महिलाओं और लड़कियों की ही मौत हुई थी. भारत के कड्डलोर ज़िले में मारे गए लोगों में 90 फ़ीसदी महिलाएं थीं.
एक मुश्किल यह है कि ग्रामीण महिलाओं में अभी जागरूकता ही नहीं है कि जिस तरह से मानसून, जलस्तर और मौसम में बदलाव आ रहा है वह जलवायु परिवर्तन का नतीजा है. बदलते पर्यावरण की चुनौतियों में अपने आप को किस तरह से ढालना है इस बारे में उन्हें पूरी जानकारी नहीं है.
जलवायु परिवर्तन के महिलाओं पर दुष्प्रभाव भले ही अब धीरे-धीरे सामने आ रहे हों लेकिन ये भी सच है कि महिलाएं इससे मुक़ाबले के लिए फ़ैसले लेने में सक्षम नहीं है. ऐसी संस्थाओं में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है जहां पर स्थायी विकास के रास्तों की तलाशने की बहस हो रही है.
समाधान की तलाश
ऐसे में सवाल उठता है कि इस चुनौती का मुक़ाबला कैसे हो और शुरुआत कहां से हो. भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले के लिए आठ मिशन शुरू करने का फ़ैसला लिया है जिसमें सौर ऊर्जा और ऊर्जा की क्षमता बढ़ाने के अलावा अन्य क्षेत्रों में काम किया जाना है.
इससे इतर विश्लेषकों का मानना है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश से महिला सशक्तिकरण में मदद मिलेगी. लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई अगर सही ढंग से हो तो बड़े होने पर उनके परिवार का आकार सीमित रहने, बच्चों को पौष्टिक आहार मिलने और बच्चों के स्वस्थ रहने की संभावना बढ़ जाती है.
कई ग़ैर सरकारी संगठन शहरों, गांवों में वर्कशॉप आयोजित कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत ग्रामीण इलाक़ों और कमज़ोर वर्ग की महिलाएं अपने जीवन में आ रहे बदलावों पर अनुभव बांटती हैं. जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनाई जाने वाली योजनाओं और संगठनों में प्रभावित महिलाओं को शामिल किए जाने से उन्हें अपने भविष्य के लिए ख़ुद निर्णय लेने में मदद मिल सकेगी.
दुनिया के ताक़तवर देशों, विकासशील देशों और ग़रीब देशों में जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले के लिए किसी रणनीति पर सहमति भले ही न बन पा रही हो लेकिन पर्यावरण में आने वाले परिवर्तनों की क़ीमत सबसे ज़्यादा वही लोग चुकाएंगे जिनकी नीति बनाने में कोई भूमिका नहीं है, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से जो शक्तिहीन हैं और शिखर वार्ताओं तक जिनकी आवाज़ नहीं पहुंच पा रही है.
ऐसे लोग जिन्हें बढ़ते तापमान के लिए ज़िम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता, उन्हें बचाना, सहारा देना और रोज़ी रोटी सुनिश्चित करना सभी देशों की नैतिक ज़िम्मेदारी भले ही बनती हो लेकिन फ़िलहाल आर्थिक हित मानवीय हितों के सामने बेमानी से हो गए लगते हैं.