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फूल-पत्तियों पर मिले अधिकार ने की जिंदगी गुलजार..

१ मार्च २०१७

वन्य अधिकार अधिनियम 2006, ने वन्य संसाधनों पर स्थानीय और आदिवासी समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित किया है. डालते हैं एक नजर महाराष्ट्र के धामदीटोला गांव के बी़ड़ी मजदूरों पर जो तेंदू पत्ते से बीड़ियां बनाते हैं.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Khanna

हाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में स्थित धामदीटोला गांव के लिए मई का महीना सबसे अहम होता है. इस दौरान यहां के लोग बीड़ी बनाने में इस्तेमाल होने वाली तेंदू पत्तियों की कटाई का काम करते हैं. यहां रहने वालों समुदायों के लिए विदर्भ के इन जंगलों में काम करना, तेंदू पत्तों को इकट्ठा करना, महुआ के फूलों और बीजों से शराब और साबुन बनाना लंबे समय से कमाई का साधन रहा है. लेकिन कुछ साल पहले तक तेंदू और बांस के जंगलों तक इनकी पहुंच सीमित थी. यहां तक कि ये लोग ग्राहकों को सीधे तौर पर अपने उत्पाद भी नहीं बेच सकते थे. पहले ये अपने उत्पाद वन अधिकारियों को बेचते थे जिसके बाद ये आम ग्राहकों तक पहुंच पाते थे.

लेकिन वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 से यहां का सूरत-ए-हाल बदला, और इस कानून के जरिये यहां के आदिवासियों और समुदायों को अपने परंपरागत वन और संसाधनों के प्रबंधन की अनुमति मिली.

विदर्भ नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी से जुड़े दिलीप गोड़े बताते हैं कि अब लोगों के पास अपने सामान को खरीदने-बेचने का अधिकार है जिसके चलते उन्हें अच्छे दाम मिल रहे हैं. यह सिर्फ कमाई करने का जरिया ही नहीं है बल्कि यह जंगलों की देखभाल और सुरक्षा से जुड़ा मसला भी है.

गांव परिषद के सदस्य मोतीराम सायन बताते हैं कि जब से बिचौलिये खत्म हुये हैं, गांव वाले ज्यादा तेंदू बेच रहे हैं और कीमत भी ज्यादा पा रहे हैं. गांव वालों की इस बात की भी खुशी है कि उन्हें अब अपना पैसा समय पर मिल रहा है जिसका इस्तेमाल गांव की बेहतरी के लिये भी किया जा रहा है. सायन बताते हैं "पहले न तो हमें समय पर कीमत मिलती थी और न ही समय पर पैसे ही मिलते थे और हमारे पास धोखा खाने और इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता था."

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल 31 अगस्त तक तकरीबन 40 लाख एकल दावे और 11 लाख सामुदायिक दावे इस कानून के तहत दायर किये गये थे. इसमें से 17 लाख एकल दावों और 44,473 हजार समुदायिक दावों का अब तक निपटान किया जा चुका है. साल 2013 में पहली बार गांव वालों ने तेंदू पात बेचे थे.

लेकिन वैश्विक संस्था द राइट्स एंड रिसोर्स के मुताबिक अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. संस्था के मुताबिक वन्य अधिकार कानून के तहत 4 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि से करीब 15 करोड़ लोगों को लाभ मिल सकता था. लेकिन महज 1.2 फीसदी हिस्से को ही इसके अंदर लाया गया है. 

हालांकि इस बीच सरकार और आदिवासी समुदायों के बीच संघर्ष भी होते रहे हैं. तेज आर्थिक विकास के चलते देश में जमीन की मांग लगातार बढ़ रही है. पूर्वी विदर्भ क्षेत्र के तकरीबन 4.5 लाख परिवार आज भी अपने गुजर बसर के लिए तेंदू की पत्तियों पर निर्भर हैं. इसके अतिरिक्त अब इन समुदायों के पास शहद जैसे वन्य उत्पादों के प्रबंधन के अधिकार हैं. गांव वालों को उम्मीद है कि वे जल्द ही गांव में वेयरहाउस की व्यवस्था भी कर लेंगे और पत्तियों को सुखा कर बेचा करेंगे क्योंकि सूखी हुई पत्तियों की अच्छी कीमत मिलती है.

गांव वालों ने बताया कि पहले कमाई कम होने के चलते बच्चे और नौजवान शहर का रुख कर लेते थे लेकिन जब से तेंदू पत्तियों के काम से अच्छा पैसा मिल रहा है, तब से गांव से लोग शहर नहीं जा रहे हैं. लेकिन इन्हें यह भी पता है कि अगर लोग बीड़ी का सेवन कम कर देंगे तो तेंदू पत्तियों की कीमत में गिरावट आ सकती है.

लोग अपने जंगलों को लेकर इतने सतर्क हैं कि रात में भी जंगलों की पहरेदारी करते हैं. लोगों को अपने जंगल का अधिकार मिल चुका है इसलिए यहां माओवादी संगठन भी ज्यादा सक्रिय नहीं हैं.

गोडे को लगता है कि विकास के दृष्टिकोण में बदलाव लाया जाना चाहिये, क्योंकि विकास सिर्फ बड़े शहरों का ही नहीं होता. गोडे मानते हैं कि जो लोग गांव में रहते हुये अपनी जीवनशैली का संरक्षण कर रहे हैं वे भी विकास में योगदान दे रहे हैं. उन्होंने कहा कि इन अधिकारों के चलते ये ग्रामीण अब मजदूर से मालिक बन गये हैं और इनका जीवन स्तर भी बेहतर हुआ है.

एए/ओएसजे (रॉयटर्स)