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गोलों पर रहेगी पैनी नजर

२६ फ़रवरी २०१४

फीफा ने गोलकंट्रोल कंपनी की गोल लाइन तकनीक 2014 में होने वाले फुटबॉल वर्ल्ड कप के लिए चुनी है. यह पहली बार होगा कि गोल लाइन तकनीक किसी फुटबॉल चैंपियनशिप में इस्तेमाल हो रही हो.

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तस्वीर: Getty Images

गोल के अंदर पहुंची गेंद, लेकिन रेफरी को दिखी नहीं या फिर किसी टीम को रेफरी के शक का फायदा मिल जाए, यह किसी भी फुटबॉल फैन के लिए सबसे बुरा सपना है. ऐसे ही बेनिफिट ऑफ डाउट में शामिल हैं, 1986 के वर्ल्ड कप क्वार्टर फाइनल मैच में हाथ से गोल में गई बॉल को गोल मान लिया गया. इसके बाद 2010 में जर्मनी के खिलाफ इंग्लैंड के मैच में फ्रैंक लैंपार्ड का गोल नहीं माना गया, क्योंकि रेफरी का ध्यान नहीं गया.

इसी कारण विश्व फुटबॉल संस्था फीफा ने तय किया है कि वह गोल लाइन तकनीक का इस्तेमाल कर फुटबॉल को सटीक बनाने की कोशिश करेगी. फीफा ने तय किया कि 2014 के फुटबॉल विश्व कप में वह जर्मनी की गोलकंट्रोल कंपनी के सिस्टम को गोल लाइन तकनीक के लिए इस्तेमाल करेगी.

मुद्दा सिर्फ फैन्स के दुखी होने का या उन खिलाड़ियों का नहीं है, जिन्हें लाखों में खरीदा जाता है. ये मुद्दा स्पॉन्सरों का भी है, जो इस खेल में पैसे झोंकते हैं कि उनके ब्रांड पर फुटबॉल फैन्स की नजर जाएगी. सिर्फ इंग्लिश प्रीमियर लीग ही अरबों डॉलर की है.

3डी फुटबॉल

कुल मिला के फीफा ने चार गोल लाइन तकनीकों को लाइसेंस दिया है. इसमें ब्रिटेन की हॉक आई, जर्मनी की कायरोस टेक्नोलॉजी, गोलरेफ और गोलकंट्रोल शामिल हैं. लेकिन विजेता तकनीक गोल कंट्रोल की रही.

इस सिस्टम में कुल 14 कैमरे इस्तेमाल किए जाते हैं, हर गोल के लिए सात. इन्हें स्टेडियम की छत के नीचे लगाया जाता है. इसके बाद खास सॉफ्टवेयर के जरिए सिस्टम गोल के आस पास बॉल की पोजिशन की 3डी इमेज बनाता है. गोलकंट्रोल के महानिदेशक डिर्क ब्रोइशहाउजेन ने बताया," जैसे ही गेंद गोल लाइन पार करती है, सिस्टम एक सिग्नल भेजता है. सेकंड भर के अंतर से ये सिग्नल रेफरी की खास घड़ी में जाता है. गलती की संभावना सिर्फ पांच मिलीमीटर की है. या उससे भी कम. इतना सटीक गोल लाइन हो नहीं सकता."

14 कैमरे हर सेकंड 500 फ्रेम बनाते हैं, जो कि दो गीगाबाइट डाटा है. इसे फाइबर ऑप्टिक तारों के जरिए 15 कंप्यूटरों को भेजा जाता है. हालांकि गोल है या नहीं इसका आखिरी फैसला रेफरी के ही हाथ में होता है. यह तकनीक सिर्फ मैच अधिकारियों की मदद के लिए है.

इसी तरह हॉक आई सिस्टम को टेनिस में अपने फैन्स मिल गए हैं. इस तकनीक का इस्तेमाल 2005 से टेनिस में किया जा रहा है. स्टेडियम के आस पास अलग अलग कोणों से इमेज भेजी जाती हैं. और इसके जरिए बॉल का रास्ता फैन्स को फिर से दिखाया जा सकता है.

चुंबकीय क्षेत्र

फीफा के गोल लाइन तकनीक के इस्तेमाल की योजना ने सेंसर वाले सिस्टमों के विकास को भी बढ़ावा दिया. जर्मनी के फ्राउनहोफर इंस्टीट्यूट में ऐसी गोल लाइन तकनीक बनाई गई, जो चुंबकीय क्षेत्र पर काम करती है. ठीक वैसे ही जैसे दुकान में सिक्योरिटी टैग, जैसे ही कोई कुछ चुराने की कोशिश करता है, अलार्म बज जाता है. ऐसे ही जैसे ही गेंद गोल लाइन पार करती है, गोल पोस्ट के आस पास चुंबकीय क्षेत्र बन जाता है और गोल होने का अलर्ट भेजा जाता है. फ्राउनहोफर के रेने डुंकलर बताते हैं, "हमारी एक खास गेंद है, जिसमें कॉपर कॉइल है. अगर ये बॉल गोल लाइन के पार जाती है जो इंटेलिजेंट गोल इसे पकड़ लेता है और ये जानकारी वायरलेस के जरिए रेफरी की कलाई घड़ी तक पहुंच जाती है."

चौथा प्रोग्राम फीफा के कायरो टेक्नोलॉजी का जीएलटी सिस्टम है. यह फ्राउनहोफ के सिस्टम जैसा ही है. लेकिन इसमें टर्फ के नीचे केबल लगाई जाती हैं, जो चुंबकीय क्षेत्र बनाती हैं. और गेंद में कॉपर कॉइल की बजाए चिप लगी होती है.

कोई तो लाइन हो

ये सभी तकनीक खेल को पूरी तरह बदल सकती हैं. लेकिन क्या गोल लाइन तकनीक वही असर पैदा कर सकेगी जो हॉक आई ने टेनिस में किया है. 2005 से टेनिस खिलाड़ी लाइन कॉल के खिलाफ हाथ खड़ा कर सकते हैं. अंपायर को दी गई यह चुनौती अगर सफल होती है तो खिलाड़ी को एक अंक मिल जाता है या फिर उस अंक के लिए फिर सर्विस की जाती है. भले ही गोल होने के एक ही सेकंड में रेफरी तक सिग्नल पहुंच जाए तो भी ये संभावना तो बनी ही रहती है कि रेफरी मैदान पर इसे नहीं देख पाए.

बहरहाल इंग्लिश प्रीमियर लीग ने गोल लाइन तकनीक 2013 से ही इस्तेमाल करनी शुरू कर दी है. ताकि पता चले कि ये काम कैसे करती है और क्या खेल को ज्यादा फेयर बना सकती है.

रिपोर्टः चिपोंडा चिम्बेलू/आभा मोंढे

संपादनः अनवर जे अशरफ