1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

फांसी या ज़हरीली सूई

७ जुलाई २००९

मौत की सज़ा जितनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी है उसके तरीके के विकास की कहानी और उस पर बहस. भारत में भी यह बहस तेज़ हो चुकी है. मौत की सज़ा फांसी के ज़रिए हो या किसी और तरीक़े से, बहस इस पर भी छिड़ी है.

https://p.dw.com/p/Iigo
तुरंत मौत की गारंटी?तस्वीर: AP

नागरिक अधिकार कार्यकर्ता अशोक कुमार वालिया की ओर से एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें कहा गया कि फांसी के ज़रिये मौत की सज़ा एक बेरहम और तकलीफ़देह तरीका है. उसके बदले ज़हरीली सूई के ज़रिये जान ली जानी चाहिए. याचिका में ध्यान दिलाया गया कि अमेरिका के 30 संघीय प्रदेशों में इसे अपनाया जा रहा है.

इस पर फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मौजूदा तरीके में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा, क्योंकि इसका कोई सबूत नहीं है कि दूसरे तरीके फांसी के मुकाबले कम तकलीफ़देह हैं. मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने कहा कि कैसे पता लग सकता है कि फांसी से तकलीफ़ होती है, या ज़हरीली सूई से तकलीफ़ नहीं होती. उन्होंने ध्यान दिलाया कि विशेषज्ञों का मानना है कि फांसी से तुरंत मौत हो जाती है.

बहरहाल, इस याचिका के सिलसिले में न्यायाधीश की एक दूसरी टिप्पणी सामाजिक और वैधानिक दृष्टि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. उन्होंने अपने फ़ैसले में याचिका दायर करने वाले वालिया को सुझाव दिया कि तरीके के ख़िलाफ़ संघर्ष के बदले वे मौत की सज़ा को ख़त्म करने के लिए अभियान चलाएं. अदालत की ओर से अब तक बिरले ही ऐसे सुझाव देखने को मिले हैं.

हालांकि जजों ने कहा कि भारत में मौत की सज़ा पर बहुत कम अमल होता है. इस तरह का आखिरी मामला सन 2004 में सामने आया था, जब 14 वर्षीय किशोरी के बलात्कार व हत्या के मामले में धनंजय चटर्जी नामक एक व्यक्ति को फांसी की सज़ा दी गई थी. इस समय 28 मुजरिमों को मौत की सज़ा मिली हुई है. इनमें अफ़ज़ल गुरु का मामला भी शामिल है, जिन पर संसद भवन पर आतंकवादी हमले में शामिल होने का आरोप था.

रिपोर्ट - एजेंसियां/ उ भ

संपादन- अनवर जमाल