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पैत्रिक संपत्ति में बेटी का हक बढ़ा

निर्मल यादव२२ अप्रैल २०१६

पिता की संपत्ति में बेटों के बराबर हिस्सेदारी का कानूनी हक हासिल करने के बाद बेटियों को अब उत्तराधिकार में भी अधिकार मिलना बड़ी कामयाबी है. भारत के खाप पंचायतों वाले समाज में यह सामाजिक लिहाज से भी मील का पत्थर है.

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तस्वीर: picture alliance/dpa/P. Adhikary

अपने तरह के इस अनूठे मामले में पैत्रिक संपत्ति में शादीशुदा बेटी को हिस्सा देने से आगे जाकर देश की सर्वोच्च अदालत ने मालिकाना हक देने की बात कही है. वह भी पिता द्वारा बेटी को उसके भाई और मां को नजरअंदाज कर संपत्ति का वारिस और मालिक घोषित करना साहसिक फैसला है.

यह मामला उत्तराधिकार के कानून में संपत्ति के बटवारे से इतर किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं अर्जित संपत्ति को हस्तांतरित करने के अधिकार की भी स्पष्ट व्याख्या करता है. खासकर सोसाइटी एक्ट के तहत एक पिता अपनी शादीशुदा बेटी को पत्नी और बेटे को नजरंदाज कर मकान का मालिकाना हक अपने जिंदा रहते ही सौंप सकता है.

अदालत ने कोलकाता की पक्षकार ग्रुप हाउसिंग सोसायटी की उस दलील को भी अस्वीकार कर दिया कि पिता ने बेटी को फ्लैट के मालिकाना हक में हिस्सेदारी या वारिसों की सूची में शामिल नहीं किया था. दरअसल प्रतिवादी पक्षकारों पत्नी और हाउसिंग सोसायटी का सोसाइटी एक्ट के हवाले से दावा था कि संपत्ति के मालिक ने मकान के अंशधारकों और वारिस की सूची में पत्नी और बेटे को शामिल किया था. इसलिए वसीयत या किसी अन्य माध्यम से संपत्ति मालिक पत्नी और बेटे के बजाय बेटी को मकान का उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर सकता है.

साथ ही उत्तराधिकार नियमों के मुताबिक भी वादी के बेटे और पत्नी उक्त संपत्ति में अपनी हिस्सेदारी का दावा कर सकते हैं क्योंकि एक बेटे के लिए पिता की संपत्ति में कानूनी हक मांगने का कानूनी अधिकार है. पक्षकारों की तीसरी दलील बेटी के शादीशुदा होने की थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी दलीलों को खारिज कर कहा कि अव्वल तो बेटा और पत्नी विवादित मकान को पैत्रिक संपत्ति नहीं कह सकते हैं. क्योंकि यह प्रतिवादी ने स्वयं खरीदी थी. इसलिए इस संपत्ति को उत्तराधिकार के दायरे में नहीं रखा जा सकता है.

जहां तक सोसायटी एक्ट के प्रावधानों का सवाल है तो अदालत ने कहा कि संपत्ति के मालिक ने पत्नी और बेटे के गैरजिम्मेदाराना रवैये से आजिज आकर संपत्ति का उत्तराधिकार शादीशुदा बेटी को दिया है. इसमें संपत्ति के पंजीकरण के समय खरीददार द्वारा पत्नी और बेटे को वारिस बनाना इस बात का पुख्ता आधार नहीं है कि उन्हें ही उत्तराधिकार मिलेगा. संपत्ति का मालिक किसी भी समय वारिस को बदल सकता है और किसी और को वारिस बना सकता है.

अदालत का यह फैसला महिलाओं के कानूनी हक की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने में अहम हथियार साबित होगा. इस लिहाज से यह फैसला कानून के अलावा सामाजिक महत्व के लिहाज से खासा अहम कहा जा सकता है.

ब्लॉग: निर्मल यादव