पश्चिम की चुनौती, असंतुष्टों की फौज न बने
२२ मार्च २०१६क्या वजह है कि युवा मुसलमान उन समाजों के खिलाफ हो जाते हैं जिनमें वे बड़े हुए हैं और अपने साथी नागरिकों को बेरहमी से मारने लगते हैं. ये सवाल हम यूरोप में अल कायदा की प्रेरणा से होने वाले हमलों के शुरू होने के बाद से पूछ रहे हैं. अब इस्लामिक स्टेट के समर्थकों द्वारा ये हमले जारी हैं. ब्रसेल्स के सावेंटेम एयरपोर्ट और मालबीक मेट्रो स्टेशनों और इससे पहले पेरिस पर हुए आतंकी हमलों के बाद तो इन सवालों का जवाब खोजना और भी जरूरी हो गया है. यदि और खून खराबे को रोकना है तो यूरोपीय समाजों को जल्द ही कुछ करना होगा.
अलगाव का नतीजा
समस्याओं को फौरन सुलझाना आसान नहीं होगा. यूरोप में आतंकवाद का एक मुद्दा है यूरोपीय समाजों द्वारा युवा मुसलमानों को हाल के दशकों में अपने समाजों में घुलाने मिलाने में विफलता. स्वाभाविक रूप से इसके दो पहलू हैं. ये भी कहा जाना चाहिए कि कई अलग धर्मों वाले आप्रवासियों ने स्थानीय समाजों में घुलने मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. वे मोलेनबीक जैसे घेटो में रहते हैं जहां पेरिस हमलों का एक साजिशकर्ता अब्देससलाम भी रहता था. या फिर फ्रांसीसी शहरों के बाहर बनी बहुमंजिली इमारतों में या ब्रिटेन और जर्मनी के आप्रवासी-बहुल इलाकों में. यह पैटर्न हर कहीं देखा जा सकता है.
समाज में अलगाव का एक नतीजा है अपने चुनाव के देश की भाषा सीखने में नाकामी. यह समाज में उनके पूरी तरह घुलने मिलने और सामाजिक नियमों को समझने और उनका आदर करने में बाधा डालता है. यह एक अहम समस्या का कारण बनता है. आप्रवासी बच्चे शिक्षा के मौकों का लाभ नहीं उठा पाते और कामयाबी के लिए जरूरी क्षमता हासिल नहीं कर पाते.
पूंजीवादी समाज
पश्चिमी देशों का श्रम बाजार प्रदर्शन पर आधारित है. अभियोक्ता ऐसे कर्मचारी खोजते हैं जिन्होंने स्कूल और कॉलेज में अच्छे नतीजे हासिल किए हैं और कड़ी मेहनत की मिसाल पेश की है. स्कूलों में खराब प्रदर्शन करने वालों को डार्विन के सिद्धांत के आधार पर अलग कर दिया जाता है. यह पूंजीवादी समाज की प्रवृति है. आप्रवासी परिवारों के बहुत से युवा लोगों को कम आय वाली नौकरी करने पर मजबूर होना पड़ता है या फिर बेरोजगार रहना पड़ता है. इस तरह वे सरकारी भत्ते पर निर्भर हो कर जीवन बिताते हैं. समाज में घुलने मिलने में नाकाम रहे आप्रवासियों का यही भविष्य होता है.
यदि ऐसे मौकों पर उनका परिचय इस्लामी धार्मिक कट्टरपंथ से हो जाए तो नतीजे साफ हैं. उग्रपंथी इस्लामी विचारधारा स्वभाव से निरंकुश है. यह असंतुष्ट लोगों को एक आसान पंथ देती है. इस बात को देखते हुए कि इस्लाम की विकृत व्याख्या पश्चिमी समाज के उदारवादी मूल्यों के साथ टकराव की राह पर है, यह अपरिहार्य लगता है कि तथाकथित इस्लामिक स्टेट पश्चिम के काफिरों पर आतंकी हमलों का प्रमुख स्रोत बने. और इस हिंसा को इस्लाम और पश्चिम के बीच संस्कृति का झगड़ा बता कर उचित ठहराया जाता है जिसमें सिर्फ इस्लाम की जीत हो सकती है.
असंतुष्ट युवा
जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और बेल्जियम जैसे देशों ने अपने यहां से सैकड़ों असंतुष्ट युवा मुसलमानों को इस्लामिक स्टेट में शामिल होने के लिए सीरिया जाते देखा है. जहां वे समझते हैं कि वे दूसरे विचार वालों के लोगों की हत्या कर एक खिलाफत के गठन में मदद दे पाएंगे. और ये कि वे अपने देशों में वापस लौटकर पश्चिमी साम्राज्यवाद के अपराधों का बदला लेकर भी खिलाफत में योगदान दे पाएंगे. हम अब इसी को होता देख रहे हैं.
निश्चित तौर पर पश्चिमी समाज सुरक्षा बढ़ाकर इन चुनौतियों का मुकाबला करेगा. हम यूरोप में पुलिस पर और खर्च की उम्मीद कर सकते हैं. ये सही है और जरूरी भी. हमें सुरक्षा पाने का हक है. लेकिन हमें जल्द ही कुछ और करने की भी जरूरत है. हमें आप्रवासियों को उनकी आस्था की परवाह किए बगैर समाज में घुलाने मिलाने के प्रयासों को बढ़ाना होगा. हमें अपनी आर्थिक भलाई के लिए भी उनकी जरूरत है. हमें इस बात की भी गारंटी करनी होगी कि हमारी शिक्षा व्यवस्था और श्रम बाजार में उन्हें समान अवसर मिले. इसके लिए भारी निवेश और सोच में बदलाव की जरूरत होगी. यदि हम आप्रवासी युवाओं के लिए अवसरों को बेहतर नहीं बनाते हैं तो असंतुष्ट युवाओं की फौज तैयार करेंगे, जो कट्टरपंथ के प्रभाव में आकर हमारी आजादी को नष्ट करने के लिए बम धमाका कर बदला लेंगे. यह बहुत ही बुरा होगा. इसमें सबकी ही हार होगी.