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नोबेल मारियो को मिला दुनिया लुइस की बदल गई

८ अक्टूबर २०१०

पेरू के लेखक को नोबल मिलते ही फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में लोग पेरू के स्टॉल तलाशने लगे. और काफी तलाश के बाद मिले तीन छोटे छोटे स्टॉल. एक एलान ने कैसे बदल दी लुइस मारोलेस की दुनिया.

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तस्वीर: DW/Vivek Kumar

बुधवार दोपहर तक लुइस एदवार्दो सुनिगा मोरालेस फ्रैंकफर्ट के विशाल पुस्तक मेले में मौजूद बीसीयों हजार चेहरों में एक अनजाना सा चेहरा भर थे. दुनिया भर से आए साढ़े सात हजार से ज्यादा प्रकाशकों में एक छोटा सा प्रकाशक. लेकिन अचानक नोबल पुरस्कार के एलान ने उसकी दुनिया ही बदल दी.

हॉल नंबर 5.1 की एक लंबी कतार में बड़े बड़े पंडालों के बीच पेरू से आए बोराडोरएडिटर्स नाम की संस्था एक छोटा सा स्टॉल है. इसमें किताबें भी गिनती की हैं. जो हैं वह भी स्पेनिश में हैं इसलिए वहां आने वालों की संख्या बहुत कम थी. अचानक बुधवार दोपहर बाद इस छोटे से स्टॉल पर लोगों का तांता लगने लगा. मोरालेस जो पुस्तक मेले में डेढ़ दिन तक लगभग खाली रहे, एकाएक व्यस्त हो गए. पुस्तक मेले में आया हर व्यक्ति एक बार उनके स्टॉल पर आना चाहता था. सभी उनसे मारियो वर्गास लियोसा के बारे में पूछ रहे थे.

Luis E. Zuniga Morales Schriftsteller Peru
मोरालेस का छोटा सा स्टॉलतस्वीर: DW/Vivek Kumar

पेरू के लियोसा को साहित्य के लिए 2010 का नोबल पुरस्कार देने का एलान हुआ और इस एलान ने छोटे से स्टॉल और मोरालेस दोनों की जिंदगी बदल दी. लेकिन इस एलान ने बहुत सी मुश्किलें भी खड़ी कर दीं क्योंकि उनके पास तो लियोसा की एक भी किताब नहीं है. वह बताते हैं, “लोग मुझसे लियोसा की किताबें मांग रहे हैं लेकिन मेरे पास उनकी किताब नहीं है. वह बड़े लेखक हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर के बहुत बड़े प्रकाशन गृह उनकी किताबें छापते हैं.”

25 साल के लुइस खुद एक लेखक हैं. उनकी दो किताबें प्रकाशित हुई हैं. वह एक प्रकाशक भी हैं. वह बताते हैं कि उनका नया और छोटा सा पब्लिशिंग हाउस है जिसने अब तक 25 किताबें छापी हैं. उन्हीं किताबों के साथ वह फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में अपने पैसे से आए हैं. वह कहते हैं, “फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले ने जितना पैसा पेरू के लिए भेजा, उसमें एक ही प्रकाशक आ सकता था. लेकिन हम यहां आना चाहते थे इसलिए हमें अपना पैसा खर्च करके आना पड़ा.”

नोबल विजेता लियोसा के देश पेरू से सिर्फ तीन प्रकाशक इस बार मेले में हैं. उन सभी के छोटे छोटे स्टॉल हैं. वह भी इसलिए हैं क्योंकि इस साल का मेहमान लातिन अमेरिकी देश अर्जन्टीना है और आयोजक लातिन अमेरिकी साहित्य की विविधता चाहते थे. लेकिन अब पेरू के लेखक को नोबल मिलने से ये छोटे छोटे स्टॉल ही सबसे अहम हो गए हैं. हालांकि लियोसा की किताबें दूसरे प्रकाशकों के पास हैं.

मोरालेस को इस बात का गम नहीं है. वह तो लियोसा को नोबल मिलने से बेहद खुश हैं. वह कहते हैं, “मैं बहुत बहुत खुश हूं. हर बार उनका नामांकन होता लेकिन पुरस्कार नहीं मिलता. इस बार उन्हें पुरस्कार मिल ही गया. यह हमारे देश का पहला नोबल है और मुझे पूरा यकीन है कि इसके बाद देश में लेखकों को ज्यादा प्रोत्साहन मिलेगा.”

मोरालेस कहते हैं कि उनके देश में साहित्य और संस्कृति को सरकार जरा भी अहमियत नहीं देती. वह बताते हैं, “हमारे यहां तो संस्कृति मंत्रालय भी अभी बना है. इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं है कि संस्कृति और साहित्य को आगे बढ़ाने के लिए भी मदद की जरूरत होती है. लियोसा का यह नोबल हमारे लिए वह काम कर सकता है जिसका हमें बरसों से इंतजार है.”

रिपोर्टः फ्रैंकफर्ट से विवेक कुमार

संपादनः एन रंजन

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