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नेपाल में दिल, दिमाग और कान पर कब्जे की जंग

२२ नवम्बर २०१७

नेपाल में चुनाव के अब कुछ ही दिन बचे हैं और यहां चुनावी जंग का सबसे बड़ा हथियार बना है रेडियो. राजनीतिक दलों के समर्थन से चल रहे रेडियो स्टेशन हिमालयी देश के दूर दराज के इलाकों में तक नेताओं का संदेश पहुंचा रहे हैं.

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Nepal Wahlen
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Mathema

पश्चिमी देशों और यहां तक कि कई एशियाई देशों के भी राजनीतिक अभियानों में अब सोशल मीडिया का दबदबा है लेकिन नेपाल के हर पांच में से एक आदमी ही इंटरनेट की पहुंच में हैं ऐसे में यहां रेडियो ही राजा है. 1990 के दशक में जब सत्ता पर राजशाही की पकड़ कमजोर हुई तो यहां कम्युनिटी रेडियो की बाढ़ आ गयी. इस दौरान मीडिया को ज्यादा तवज्जो मिली, नई सरकार के लिए चुनाव कराये गये. इसके बाद जब मोबाइल क्रांति हुई तो सस्ते मोबाइल फोन में एफएम रिसीवर की भी सुविधा थी और इससे रेडियो स्टेशनों का दायरा बड़ी तेजी से बढ़ा. स्थानीय लोगों के लिए समाचारों तक पहुंचने का यह एक आसान तरीका बन गया क्योंकि अखबारों को उन तक पहुंचने में कई बार कई कई दिन लग जाते.

Nepal Wahlen | Radio
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Mathema

आज 2.9 करोड़ की आबादी वाले नेपाल में 550 से ज्यादा रेडियो स्टेशन हैं और भारत जैसे विशाल पड़ोसी देश की तुलना में यहां कारोबारी एफएम स्टेशनों की संख्या करीब दोगुनी है.

हालांकि बहुत से लोगों को आशंका है कि कभी लोकतंत्र की मशाल समझा जाने वाला रेडियो इन दिनों जरूरत से ज्यादा राजनीति में रंग गया है. 90 फीसदी से ज्यादा स्टेशन राजनेताओं और उनके प्रबल समर्थकों की मदद से या फिर सीधे उनके जरिये चल रहे हैं. अंग्रेजी अखबार नेपाली टाइम्स के संपादक कुंदा दीक्षित कहते हैं, "कम्युनिटी रेडियो हमेशा से यहां संवाद का सबसे ताकतवर माध्यम रहा है. इनकी पहुंच सबसे ज्यादा लोगों तक है... और यह बात राजनीतिक दलों की समझ में आ गयी है. पिछले पांच सालों में इस माध्यम पर राजनीतिक अतिक्रमण हो गया है, इसका मतलब है कि राजनीतिक दलों की स्थानीय शाखायें रेडियो स्टेशनों को खरीद रही हैं." कुंदा दीक्षित ने इसके साथ ही यह भी कहा कि खासतौर से चुनावी समय में इनका दुरूपयोग जम के होता है.

Nepal Wahlen | Radio
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Mathema

नेपाल में 10 साल के माओवादी संघर्ष के दौरान भी रेडियो का दोनों पक्षों की ओर से खूब इस्तेमाल होता था. विद्रोही लड़ाके गुरिल्ला स्टेशनों का इस्तेमाल अपने संदेश फैलाने के लिए करते थे, पीठ पर ट्रांसमीटर रखकर गुप्त स्थानों से प्रसारण किया जाता था ताकि सरकारी सेना उनकी फ्रिक्वेंसी को ब्लॉक ना कर सके. 2006 में संघर्ष थमने के बाद माओवादयों ने खुद को राजनीतिक दलों में तब्दील कर लिया और अगला चुनाव जीत कर सदियों से चले आ रही राजशाही को खत्म करने का फैसला कर लिया.

इस बार के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी सीएनपी, यूएमएल ने माओवादियों के साथ चुनावी गठबंधन किया है. उम्मीद की जा रही है कि यह गठबंधन मौजूदा मध्य दक्षिणपंथी सरकार को सत्ता से बाहर कर देगी. हालांकि माओवादी विद्रोही से नेता बने पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड उर रेडियो क्रांति के शिकार बन सकते हैं जिसे कभी उन्होंने ही परवान चढ़ाया था. संसदीय सीट के लिए दहल के मुख्य प्रतिद्वंद्वी बिक्रम पाण्डेय मौजूदा सरकार में मंत्री हैं और एक लोकप्रिय रेडियो स्टेशन कालिका एफएम के मालिक भी. कई लोग मानते हैं कि इस रेडियो स्टेशन के कारण वह फायदे की स्थिति में हैं.

Nepal Wahlen
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Mathema

एक और माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई भी करीब एक दशक जिस गोरखा सीट पर काबिज हैं वह इन चुनावों में उनके हाथ से निकल सकती है. उनके प्रतिद्वंद्वी भी एक मशहूर स्थानीय रेडियो स्टेशन मातृभूमि के मालिक हैं.

नेपाल में 220 रेडियो स्टेशनों के लिए राष्ट्रीय खबरों का जिम्मा संभालने वाले उज्यालो नेटवर्क के चेयरमैन गोपाल गुरगैन का कहना है कि राजनेता रेडियो को, "लोगों को प्रेरित करने और उनका मन बदलने के एक औजार के रूप में देखते हैं. रेडियो राजनीतिक दलों की एक शाखा बन गयी है."

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तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Mathema

रेडियो स्टेशनों के मालिकों की दलील है कि राजनीति दलों से उनका जुड़ाव गुप्त नहीं है. काठमांडू के मिरमिरे रेडियो के मैनेजर खंभू चंदा कहते हैं, "यह बिल्कुल साफ है कि हमारे रेडियो स्टेशन का स्वामित्व माओवादी पार्टी सीपीएन के पास है. हम आपनी पार्टी को ज्यादा जगह और प्रमुखता देते हैं क्योंकि दूसरे रेडियो स्टेशन हमारी पार्टी को जगह नहीं देते."

हालांकि कई वोटरों का कहना है कि इससे साफ तौर पर पता नहीं चलता कि उम्मीदवार वास्तव में क्या करेंगे. मध्य नेपाल के धादिंग जिले में टीचर शिवा खातिवाड़ा कहते हैं, "मेरे जिले में के ज्यादातर स्थानीय रेडियो स्टेशन किसी ना किसी पार्टी से जुड़े हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि रेडियो लोगों को उम्मीदवारों को समझने में मदद कर रहा है."

एनआर/ओएसजे(एएफपी)