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नाकाम रही लौह महिला की राजनीतिक पारी

प्रभाकर मणि तिवारी
११ मार्च २०१७

लौह महिला इरोम शर्मिला मणिपुर में मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर अपनी अपनी पहली पारी में नाकाम रही थीं और अब राजनीति में खेली अपनी दूसरी पारी में भी.

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Indien Menschenrechtsaktivistin Irom Sharmila
तस्वीर: DW

किसी कानून के खिलाफ देश ही नहीं दुनिया में सबसे लंबी भूख हड़ताल करने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला को लौह महिला कहा जाता है. लेकिन यह लौह महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर 16 साल लंबी अपनी पहली पारी में भी नाकाम रही थीं और अब राजनीति में तीन महीने लंबी अपनी दूसरी पारी में भी. मणिपुर के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ मैदान में उतरी इरोम को सौ वोट भी नहीं मिल सके और उनकी जमानत जब्त हो गई. सशस्त्र बल विशेषाधिकार आंदोलन के विरोध की प्रतीक बनीं इरोम को वोटरों ने बुरी तरह नकार दिया. उनकी पार्टी के बाकी दोनों उम्मीदवार भी हार गए. दूसरी ओर, रिकार्ड मतदान के बावजूद राज्य की जनता ने सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों यानी कांग्रेस या बीजेपी में से किसी को भी साफ बहुमत नहीं दिया है.

इरोम की पारी

इरोम ने मणिपुर में करीब छह दशकों से लागू 'सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम' के खिलाफ वर्ष 2000 में आमरण अनशन शुरू किया था. उनका यह अनशन 2016 में जाकर खत्म हुआ. उसी समय उन्होंने राजनीतिक पार्टी बना कर चुनाव लड़ने का एलान किया था. बीते साल दिसंबर में उन्होंने औपचारिक तौर पर अपनी नई पार्टी 'पीपुल्स रीसर्जेंस एंड जस्टिस एलायंस' (प्रजा) का गठन करते हुए 20 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया था. इरोम का कहना था, "मेरी लड़ाई की रणनीति बदली है मंजिल नहीं. मेरा लक्ष्य सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को खत्म करना है." वह मुख्यमंत्री बन कर यह काम करना चाहती थीं. लेकिन महज तीन उम्मीदवारों के मैदान में उतरने से यह संभावना तो पहले ही धूमिल हो गई थी. इबोबी सिंह की पारंपरिक थाउबल सीट से मैदान में उतरी इरोम को वोटरों ने बुरी तरह नकार दिया.

Irom Chanu Sharmila
16 साल तक की 'सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम' के खिलाफ भूख हड़ताल.तस्वीर: picture-alliance/dpa

हालांकि पीपुल्स रीसर्जेंस एंड जस्टिस एलायंस (प्रजा) के बैनर तले मैदान में उतरी इरोम कहती हैं, "मुझे नतीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता. यह लोगों की सोच पर निर्भर है." वह कहती हैं कि इन चुनावों में तमाम राजनीतिक दलों ने खुल कर बाहुबल और धनबल का इस्तेमाल किया है. वैसे, इरोम इसके बावजूद हार मानने को तैयार नहीं हैं. हालांकि इस दुर्गति के बाद उन्होंने भविष्य में कभी चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है. वे कहती हैं, "उक्त अधिनियम के खिलाफ मेरी लड़ाई जारी रहेगी." उनकी पार्टी के बाकी दोनों उम्मीदवार भी हार गए हैं. इनमें राज्य की पहली मुस्लिम महिला उम्मीदवार नजीमा बीबी भी शामिल हैं.

भविष्य पर कयास

चुनावी नतीजों के बाद इरोम व उनकी पार्टी के राजनीतिक भविष्य के बारे में तमाम कयास लगाए जा रहे हैं. लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि शर्मिला की हार राज्य में उनकी लोकप्रियता खत्म होने का सबूत नहीं बल्कि एक राजनेता के तौर पर उनकी खामियों का संकेत है. दरअसल, लोग अब तक यह कबूल नहीं कर सके हैं कि एक कानून के खिलाफ लंबे अरसे तक भूख हड़ताल करने वाली इरोम राजनेता भी बन सकती हैं. बीते साल भूख हड़ताल खत्म करने और राजनीति में उतरने के उनके फैसले का भी काफी विरोध हुआ था. कांग्रेस की 15 साल पुरानी सरकार से असंतुष्ट होने के बावजूद राज्य की नगा, कूकी और मैतेयी जनजातियों ने या तो कांग्रेस का समर्थन किया ना ही बीजेपी का. 'प्रजा' को किसी ने राजनीतिक पार्टी के तौर पर कोई तवज्जो ही नहीं दी. एक पर्यवेक्षक जी किशोर सिंह कहते हैं, "इरोम को इन नतीजों के बाद बैठक कर अपनी भावी रणनीति की दशा-दिशा तय करनी होगी. उनको अब समझ लेना चाहिए राजनीति उनके वश की बात नहीं है."

इरोम ने पहले थाउबल के अलावा अपने गृह क्षेत्र खुराई से चुनाव लड़ने का फैसला किया था. लेकिन पैसों की कमी के चलते आखिर में उन्होंने सिर्फ थाउबल सीट से ही पर्चा दाखिल किया था.

बहुमत नहीं

राष्ट्रीय राजनीति में खास अहमियत नहीं रखने वाला यह छोटा-सा पवर्तीय राज्य इस बार 15 साल से यहां राज कर रही कांग्रेस और उसे चुनौती देने वाली भाजपा दोनों के लिए बेहद अहम बन गया था. इस चुनाव में इन दोनों दलों का काफी कुछ दांव पर था. इबोबी सिंह की अगुवाई में कांग्रेस इस बार भी जीत कर लगातार चौथी बार चुनाव जीतने का एक नया रिकार्ड बनाने का प्रयास कर रही थी, वहीं उसे कड़ी चुनौती देने वाली भाजपा असम के बाद इलाके के इस दूसरे राज्य में लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रही थी. पार्टी की ओर से चुनाव प्रचार के लिए यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा गृह मंत्री राजनाथ सिंह के पहुंचने और पार्टी प्रमुख अमित शाह के कई दिनों तक डेरा डाले रहने से साफ हो गया था कि भाजपा के लिए इस राज्य की कितनी अहमियत है.

इरोम शर्मिला के मैदान में उतरने से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के प्रमुख मुद्दे के तौर पर उभरने का अंदेशा था. लेकिन आर्थिक नाकेबंदी तमाम मुद्दों पर भारी साबित हुई. सत्ता के दोनों दावेदार यानी कांग्रेस और बीजेपी सियासी फायदे के लिए अपने अभियान के दौरान नाकेबंदी के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते रहे. बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद मणिपुर को भ्रष्टाचार-मुक्त, बंद-मुक्त और नाकेबंदी-मुक्त राज्य बनाने का भरोसा दिया था. दूसरी ओर, कांग्रेस का चुनाव अभियान नगा समझौते की आड़ में मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता बनाए रखने और विकास की गति तेज करने के इर्द-गिर्द सिमटा रहा. लेकिन नतीजों से साफ है कि वोटरों को किसी के वादे पर पूरा भरोसा नहीं हुआ.

Indien Straßenblockade
नगा विरोध प्रदर्शन के बाद मणिपुर की सड़कें तस्वीर: DW/Prabhakar

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि आर्थिक नाकेबंदी का मुद्दा अबकी कांग्रेस के लिए भारी साबित हुआ है. दूसरी ओर, नगा जनजाति के वोटरों ने भी नए जिलों के गठन के विरोध में कांग्रेस को नकार दिया. नए जिलों के विरोध में नगा संगठन बीते साल नवंबर से ही आर्थिक नाकेबंदी कर रहे हैं. इस बार मणिपुर के चुनावी इतिहास में सबसे ज्यादा मतदान होने की वजह से बीजेपी को अपनी सरकार बनने की उम्मीद थी, लेकिन उसे भी साफ बहुमत नहीं मिला है. वैसे, बीते विधानसभा चुनाव के नतीजों को ध्यान में रखें तो बीजेपी को सबसे ज्यादा फायदा हुआ है. पिछली बार उसका खाता तक नहीं खुला था. वहीं पिछली बार सात सीटें जीतने वाली तृणमूल कांग्रेस का इस बार खाता नहीं खुला है. पिछली बार पार्टी के टिकट पर जीतने वाले तमाम विधायक दूसरे दलों में शामिल हो गए थे.

किसी को साफ बहुमत नहीं मिलने की वजह से राज्य में आने वाले दिनों में विधायकों की खरीद-फरोख्त और दल-बदल का सिलसिला तेज होने का अंदेशा है.