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समाज

देशी साज पर जर्मन परवाज

१८ अक्टूबर २०१७

भारतीय संगीतकारों को पश्चिमी श्रोताओं में दिलचस्पी रही है तो पश्चिमी संगीतप्रेमियों की भारतीय वाद्ययंत्रों में. जर्मनी के कार्स्टन विके का संगीतप्रेम उन्हें जर्मनी से भारत ले आया.

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Indien Musiker Carsten Wicke
तस्वीर: DW/J. Sehgal

अपने चमन में आसान है लाखों गुलबूटे उगाना,

तुमने तो दूसरों के रेगिस्तान को नखलिस्तान बना दिया

यह पंक्तियां जर्मन मूल के रुद्र वीणा वादक कार्स्टन विके पर हर्फ दर हर्फ सही उतरती है  जिन्होंने भगवान् शिव का स्वरुप माने जाने वाली रूद्र वीणा को अपनी उंगलियों और आत्मा में रचा बसा लिया है.  

खालिस देशी साज पर संगीत का स्वप्निल संसार सजाने को आतुर थिरकती विदेशी उंगलियों का जादू किसी भी संगीत प्रेमी के लिए एक अनमोल उपहार से कम नहीं माना जा सकता. और यही हासिल हुआ जयपुर के संगीत प्रेमियों को जिन्हें दीपावली के उपहार के रूप में कार्स्टन विके की रूद्र वीणा की मिठास से अपने दिलो- दिमाग को तरोताज़ा करने का अनमोल सौभाग्य प्राप्त हुआ.

1887 से अस्तित्व में आया जयपुर शहर का संग्रहालय अल्बर्ट हॉल गवाह बना ऐतिहासिक रूद्र वीणा उत्सव का, जिसमें भारत के बचे खुचे रूद्र वीणा वादकों ने बड़ी ही शिद्दत से संगीत प्रेमियों को सराबोर कर दिया. कार्यक्रम का आयोजन किया था डागर घराने की ध्रुपद वाणी की बीसवीं पीढ़ी की अलंबरदार शबाना डागर ने जो 'उस्ताद इमामुद्दीन खान डागर इंडियन म्यूजिक आर्ट एंड कल्चर सोसाइटी' की अध्यक्ष हैं.

Indien Musiker Carsten Wicke
तस्वीर: DW/J. Sehgal

शिव ने बनायी रूद्र वीणा

महादेव को नमन करते कार्स्टन विके ने डॉयचे वेले को बताया कि भगवान शिव कुछ ऐसा गढ़ना चाहते थे जो पार्वती के रूप का वर्णन कर सके और इस तरह से अस्तित्व में आयी रूद्र वीणा.. भगवान शिव का एक स्वरुप रूद्र भी है जो उनके वाद्ययंत्र से जुड़ा हुआ है. यूं तो वीणा कई तरह की होती हैं पर शिव की वीणा रूद्र वीणा कहलाती है.

कार्स्टन बताते हैं कि यदि विधिवत पूजा के बिना रूद्र वीणा का वादन आरंभ कर दिया जाए तो भगवन शिव का रौद्र रूप सामने आने में ज्यादा वक्त नहीं लगता. सालों से भारत में रह रहे जर्मन संगीतकार यह भी कहते हैं कि इसे अंधविश्वास भी माना जा सकता है पर यह सत्य है.

जर्मनी से भारत की यात्रा

1970 में पूर्वी जर्मनी के एक छोटे से कस्बे में पैदा हुए कार्स्टन विके की संगीत यात्रा भी अत्यंत दिलचस्प है. पिता स्टंटमैन थे और छोटी मोटी  फिल्में बनाया करते थे जबकि मां एक अस्पताल में रोगियों के एक्स- रे निकाला करती थीं. कार्स्टन की दिलचस्पी कला जगत में सिर्फ इतनी थी कि वायलिन बजाना उन्हें अच्छा लगता था. पढाई का शौक तब इतना था नहीं इसलिए  उन्होंने फिल्मों की समीक्षा लिखने को अपना व्यवसाय बना लिया.  माता पिता में ज्यादा बनी नहीं और वे अलग हो गये जबकि कार्स्टन मन की शांति के लिए नए नए तरीके खोजते रहे. 

Indien Musiker Carsten Wicke
तस्वीर: DW/J. Sehgal

और ऐसे में जब एक महिला मित्र ने दिल्ली के संत सिंह आश्रम में मेडिटेशन सीखने का तरीका सुझाया तो फिर तो जैसे उनकी जिंदगी ही बदल गयी. जर्मन एकीकरण के बाद 1991 से उन्होंने भारत आना आरंभ किया जो आज तक जारी है और पिछले आठ सालों से तो वे कमोबेश यहीं पर लगातार जमे हुए हैं.

कैसे हुआ रूद्र वीणा से जुड़ाव

भारत आने पर वे नई दिल्ली के आश्रम में भजनों से जुड़े और फिर तबला सीखने की ललक ने उन्हें कोलकाता पंहुचा दिया जहां उन्हें पंडित अनिंदो चटर्जी के रूप में पहले गुरु मिले. संगीत को शौक से सनक तक पहुंचाने का कार्य किया कोलकाता ने जहां के कलामयी वातावरण ने उन्हें अपना बना लिया.

और यही उन्हें जीवन में पहली बार रूद्र वीणा सुनने का अवसर मिला जिसने उन्हें दीवाना बना दिया. दो तुम्बों पर बंधे तारों से संगीत का तिलस्म कैसे खड़ा किया जा सकता है, उन्होंने यहीं पर जाना. रूद्र वीणा को सीखने की ललक उन्हें फिर एक बार नई दिल्ली ले आयी जहां उस्ताद असद अली खां के रूप में उन्हें नये गुरु की प्राप्ति हुई. उनसे पहली मुलाकात कार्स्टन को आज भी याद है, जब संगीत के इतने ज्ञान के बावजूद भी वे सरगम के पहले सुर सा तक को उनके सामने अच्छी तरह गा नहीं पाए थे.

रुद्र वीणा है म्यूजिशियन ऑफ म्यूजिशियनश

सत्रहवीं से अठारहवीं शताब्दी के बीच रुद्र वीणा का बोलबाला था. मुगल और हिन्दू राजाओं के दरबारों से ले कर मंदिरों तक ये अनोखा साज राज करता था. वेद, श्लोक और भजन गाने के लिए संगीतज्ञों को संगीत का धरातल उपलब्ध कराती थी रुद्र वीणा. अकबर के दरबार में तानसेन के साथ संगत करने वाले रुद्र वीणा वादक ही होते थे.

Indien Musiker Carsten Wicke
तस्वीर: DW/J. Sehgal

उत्तर भारत की  प्राचीनतम संगीत विधा मानी जाने वाली ध्रुपद गायकी रुद्र वीणा के बिना की ही नहीं जा सकती. और शायद इसीलिए कार्स्टन ने उस्ताद जिया मोईनुद्दीन डागर की शागिर्दगी चुनी ताकि ध्रुपद की ऊचाइयों से रूबरू हुआ जा सके. और आज भी जब वे डागरबानी ध्रुपद प्रस्तुत करते हैं तो सुनने वालों की तालियां अनवरत बजती रहती हैं.

समय के साथ लुप्त होता साज

हैरत की बात है कि इतना कर्णप्रिय होने की बावजूद भी आज रुद्र वीणा लुप्त होने के कगार पर है. पूरे देश में गिने चुने लोग ही इसे बजाते है. जयपुर के समारोह में भी पूरे देश से मात्र छ: रुद्रवीणा वादक ही शिरकत करने पहुंचे. और तो और बाजार में भी रुद्रवीणा मिलती नहीं है.  कोलकाता की रुद्र वीणा बेचने वाली आखिरी दूकान को भी बंद हुए अरसा बीत चुका है. 6-7 लोगों के लिए दुकान खोलेगा भी कौन?

रुद्र वीणा काफी महंगा साज है जिसे बनाने की लिए महंगी लकड़ी और हाथी दांत का प्रयोग होता है जो अब बहुत से लोगों की पहुंच से बाहर  है. परन्तु कार्स्टन विके ने इस समस्या से निपटना सीख लिया है. वे अपनी रुद्र वीणा खुद बनाते है जिसमें वे स्थानीय सामान का उपयोग करते हैं. आज तक वे आठ रूद्र वीणा बना चुके हैं और उन्हीं पर अपनी प्रस्तुति देते हैं. 

संगीत प्रेमी का आखिरी सपना

कार्स्टन विके का सपना है कि ज्यादा से ज्यादा लोग रुद्रवीणा से जुड़ें.  हालांकि यह काफी मुश्किल है क्योंकि एक तो यह बहुत भरी होती है और इसे बजाना भी बहुत मुश्किल है. इसे बजाने के लिए वज्र आसन में बैठना पड़ता है और सांस लेने के साथ ही सुर बदल जाते हैं जिस के लिए नियंत्रण बहुत जरूरी है. आज रुद्र वीणा बजाना ही नहीं उसे बनाना भी पड़ता है जो नयी पीढ़ी को गवारा नहीं है.

कार्स्टन को मलाल इतना सा है कि आने वाले समय में कहीं ऐसा ना  हो कि यह देशी साज विदेशियों तक ही सीमित रह जाए और भारतवासियों को इसे बजाना उनसे सीखना पड़े.

जसविंदर सहगल, जयपुर