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दादा के चौखट पर लौटी दीदी

१७ जुलाई २०१२

भारत के राष्ट्रपति चुनाव में प्रणब मुखर्जी की मनोवैज्ञानिक जीत हो गई. अब रस्म बाकी है. दादा की सबसे बड़ी बाधा ममता बनर्जी ने पलटी खाते हुए उन्हीं के लिए वोटिंग करने का एलान कर दिया. वह इसे गठबंधन की मजबूरी बता रही हैं.

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तस्वीर: AP

महीने भर पहले प्रणब के नाम पर सबसे बड़ा अडंगा लगाने वाली यूपीए की ममता बनर्जी ने चुनाव से सिर्फ दो दिन पहले अपना पत्ता खोला. कोलकाता में उन्होंने कहा कि वह इस फैसले को बड़े भारी मन से ले रही हैं, "यह बहुत अच्छा होता कि अगर हम यह फैसला सुनाते हुए मुस्कुरा रहे होते. लेकिन ऐसा नहीं है." बनर्जी का कहना है कि उन्होंने जनता, लोकतंत्र और गठबंधन के धर्म के लिए यह फैसला लिया है.

यह पहला मौका है, जब सरकार में रहते हुए भी सरकार के खिलाफ मोर्चा कसने वाली ममता बनर्जी नरम पड़ी हैं. इससे पहले उन्होंने रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश और रेलवे का किराया बढा़ए जाने के मौके पर गरम तेवर दिखाए थे. लेकिन पिछले महीने ताजा ताजा दोस्त बने मुलायम सिंह यादव के हाथों राजनीतिक गच्चा खाने के बाद ममता बनर्जी ढीली पड़ी हैं. उनकी जगह कांग्रेस ने तेवर कड़े कर दिए हैं क्योंकि उसे मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के तौर पर एक बड़ा साझीदार मिल गया है.

नाखुशी वाला फैसला

कोलकाता में अपनी पार्टी के विधायकों और दूसरे नेताओं से मुलाकात के बाद जब ममता बनर्जी ने इस बात का एलान किया, तो उनका चेहरा सपाट था. प्रणब मुखर्जी की धुर विरोधी ममता चाहती थीं कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम या सोमनाथ चटर्जी में से किसी को राष्ट्रपति बनाया जाए. लेकिन कांग्रेस अपने उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के नाम पर अड़ गई. इसके बाद कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में इस कदर तकरार हुआ कि ममता ने यूपीए के उस कार्यक्रम में भी हिस्सा नहीं लिया, जिसमें प्रणब को उम्मीदवार घोषित किया गया. कयास यहां तक लगाए जाने लगे कि वह गठबंधन छोड़ देंगी.

Pranab Mukherjee
तस्वीर: Reuters

तृणमूल अध्यक्ष का कहना है कि वह अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहती हैं, "अगर एपीजे अब्दुल कलाम उम्मीदवार होते, तो हम उनको वोट देते. यह हमारा दुर्भाग्य है कि उनके जैसे व्यक्ति को सभी पार्टियों का समर्थन नहीं मिल पाया. इसके बाद सिर्फ पीए संगमा और प्रणब मुखर्जी के विकल्प बचे. हमारे पास 50,000 वोट हैं और हम अनुपस्थित रह कर वे वोट बर्बाद नहीं करना चाहते थे."

ममता की राजनीति

ममता बनर्जी ने पिछले दो साल में बड़ी कामयाबियां हासिल की हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल में सीपीएम की जमी जमाई सरकार को 33 साल बाद उखाड़ फेंका है. इसके अलावा उन्होंने कई मुद्दों पर केंद्र सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया है. वह एक कद्दावर और आक्रामक नेता बन कर उभर रही थीं. लेकिन तभी राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार चुनने के दौरान वह मात खा गईं. मौकापरस्त राजनीति के माहिर मुलायम सिंह ने ममता बनर्जी के साथ प्रेस कांफ्रेंस करके एपीजे अब्दुल कलाम, मनमोहन सिंह और सोमनाथ चटर्जी की उम्मीदवारी रखी. लेकिन अगले ही दिन पासा पलटते हुए प्रणब मुखर्जी का साथ दे दिया. ममता इस धक्के से उबर नहीं पाईं और अचानक उनकी राजनैतिक हैसियत छोटी हो गई. समझा जाता है कि ऐसे में वह केंद्र सरकार और कांग्रेस के निशाने पर आने से बचना चाहती थीं और उन्होंने तभी आखिरी मौके पर मुखर्जी का साथ दे दिया.

शायद इस फैसले के साथ ममता को आगे की रणनीति बनाने के लिए थोड़ा वक्त मिल जाएगा और वह कांग्रेस की कोपभाजन बनने से भी बच जाएंगी. राष्ट्रपति चुनाव के बाद ममता सहित पूरे भारत की नजर अब 2014 के आम चुनावों पर होगी.

रिपोर्टः ए जमाल (पीटीआई)

संपादनः महेश झा

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