ताजमहल के शहर में जूते बनाते नन्हें हाथ
२० दिसम्बर २०१७आगरा भारत में जूता निर्माण का भी एक प्रमुख ठिकाना है. हर साल यहां के चमड़ा उद्योग से 20 करोड़ जोड़ी जूते बन कर निकलते हैं. काम इतना बड़ा है कि शहर की एक चौथाई आबादी को इसी से रोजगार मिलता है. इसमें एक बड़ी तादाद बच्चों की है जो छोटे वर्कशॉप और घरों में यह काम करते हैं. कभी हाथों से तो कभी मशीन से. मजदूरों के लिए काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन फेयर लेबर एसोसिएशन की एक रिसर्च के मुताबिक ये बच्चे कहीं जूते सिलने, चमड़े को चिपकाने और कही जूते पैक करने का काम करते हैं.
गैर सरकारी संगठन एमवी फाउंडेशन स्टॉप चाइल्ड लेबर कॉलिशन से जुड़ा है जिसने रिसर्च करवाया. संगठन से जुड़े वेंकट रेड्डी कहते हैं, "इन बच्चों के घरों के आस पास स्कूल नहीं हो, तो ये फिर काम करने के लिए उपलब्ध रहते हैं. हमने देखा कि इनके काम का कोई तय समय नहीं है क्योंकि ये ज्यादातर घरों में काम करते हैं. इन्हें हर पीस के हिसाब से पैसा मिलता है इसलिए ये बिना रुके काम करते रहते हैं." रेड्डी ने यह भी बताया कि ये बच्चे बिना हवा वाले कमरों में छोटे छोटे समूहों में लगातार काम करते हैं. इनकी सेहत भी काफी खतरे में है. इन्हें कभी खेलने का वक्त भी नहीं मिलता.
उत्तर प्रदेश के श्रम अधिकारियों ने इस मुद्दे पर बात करने के अनुरोध का कोई जवाब नहीं दिया. जूता बनाने वाले या इन इलाकों में रहने वाले बच्चों में से आधे ही ऐसे हैं जो स्कूल जाते हैं.
भारत दुनिया में जूते और चमड़े की दूसरी चीजें बनाने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है. भारत में बने 90 फीसदी जूते यूरोपीय संघ को निर्यात किए जाते हैं. चमड़ा उद्योग में 25 लाख से ज्यादा मजदूर कई कई घंटों तक जहरीले रसायनों के बीच रह कर बेहद कम मजदूरी में काम करते हैं.
आगरा में रिसर्च करने वाली संस्था एफएलए ने देखा कि जो कंपनियां जूते निर्यात करती हैं उन्होंने बाल मजदूरी को रोकने के लिए कुछ उपाय किए हैं. हालांकि काम को सबकॉन्ट्रैक्ट के जरिये छोटे छोटे निर्माताओं को दे दिया जाता है और यहां पर नियमों का पालन नहीं होता. ऐसे घर और वर्कशॉप जांच से भी बच निकलते हैं.
स्टॉप चाइल लेबर कॉलिशन की संयोजक सोफी ओवा कहती हैं कि अच्छी तनख्वाह, बाल मजदूरी को हतोत्साहित करने के लिए सामुदायिक प्रयास और ऊपर से नियमों को सख्त कर के ही इसे रोका जा सकता है.
एनआर/एके (रॉयटर्स)