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तमिल अस्मिता का सवाल क़ायम

१९ मई २००९

श्रीलंका में तमिल अस्मिता के स्वयंभू प्रवक्ता बने लिट्टे और उसके प्रमुख प्रभाकरन का खात्मा हो गया है. लेकिन जातीयता, संस्कृति और पहचान के रक्तरंजित ताने बाने को सुलझाना बाकी है.

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लिट्टे के ख़िलाफ़ विजय अभियानतस्वीर: AP

श्रीलंका में तीन दशक पुरानी लड़ाई का खात्मा तो हो गया है लेकिन देश की आम तमिल आबादी अब भी दरबदर है. आज श्रीलंका के राष्ट्रपति महेंदा राजपक्षे संसद में लिट्टे से लडा़ई और प्रभाकरन के बारे में औपचारिक वकतव्य देंगे. क्या इसमें तमिलों की बदहाली से निपटने के सरकार के कार्यक्रम का भी ज़िक्र होगा. इस पर सबकी निगाहें हैं.

1970 के दशक में अस्तित्व में आया लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम यानी एलटीटीई, एक गुरिल्ला दस्ता था जो देखते ही देखते अभूतपूर्व संसाधनों से लैस होता गया. इसके चीफ प्रभाकरन का लक्ष्य था बंदूक और हिंसा की नोक पर अलग तमिल देश का निर्माण. 1980 के दशक से लिट्टे का श्रींलंका की सेना के साथ युद्ध छिड़ा जो सत्तर हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत के साथ अब जाकर थमा माना जा सकता है.

श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में आम लोग ब्रिटिश हाई कमीशन के दफ्तर के बाहर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे क्योंकि ब्रिटेन ने श्रीलंका को युद्ध रोकने को कहा था, उधर जब लिट्टे के समस्त सफाए के साथ युद्ध का अंत हुआ तो ब्रिटेन में बसे लिट्टे समर्थक तमिलों ने लंदन में संसद के बाहर जमा होकर अपना आक्रोश जताया. उनका कहना था कि लिट्टे से लड़ाई के नाम पर श्रीलंका सेना ने उनके लोगों का खून बहाया है. इसी मुद्दे पर लंदन में छह तमिल आंदोलनकारी पिछले सात दिन से भूख हड़ताल पर बैठे हैं. तमिल अस्मिता की सुरक्षा के लिए इस बीच एक नए अहिंसक संगठन की मांग उठने लगी है. ब्रिटिश तमिल काउंसिलर्स एंड एसोसिएट्स के चेयरमैन थैय़ा इदाईकादर का कहना है कि ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा के अलावा दुनिया भर में तमिल बिरादरी को मिलकर आगे की दिशा तय करनी चाहिए. सरकार ने तमिल बहुल इलाकों को एक स्वायत्त शासन के तहत लाने की बात कही है.

Flüchtlinge in Sri Lanka
अपनी ही ज़मीन पर विस्थापित आम तमिलतस्वीर: AP

अमेरिका ने भी कहा है कि श्रीलंका को अब तेज़ी से उस राजनैतिक कार्यक्रम पर काम करना चाहिए जिसके तहत देश के सभी वर्गो और जातीयताओं के अधिकार सुनिश्चित किए जा सकें. श्रीलंका सेना की इस लडा़ई में फ़तह तो हो गयी लेकिन इसकी कीमत इलाक़े के लाखों तमिलों को भी चुकानी पड़ी. जिनमें से कई मारे गए और कई को घर बार छोड़कर विस्थापित जिंदगी बितानी पड़ रही है. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने इन लोगों के हालात पर चिंता जतायी है. रेड क्रॉस ने तो इस लड़ाई को अकल्पनीय मनुष्य विनाश कहा है.


रिपोर्ट- एजेंसियां

संपादन- एस जोशी