ठंडा क्यों पड़ गया है चिपको आंदोलन?
११ जनवरी २०१८आंदोलन के अगुआ चंडी प्रसाद भट्ट इसके ठंडा पड़ने की बात से इनकार करते हैं. गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं, "आंदोलन ठंडा नहीं पड़ा है. चिपको की चेतना आज भी किसी न किसी रूप में पर्यावरण से जुड़े लोगों के बीच मौजूद है. मैं खुद नहीं चाहता था कि चिपको कोई राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर का संगठन बन जाए, और मैं उसका नेता. मैं चाहता था कि हर इलाके में वहां की जरूरत के हिसाब से अलग-अलग लोग पर्यावरण के लिए काम करें. चिपको आंदोलन ने यह चेतना पैदा की है."
उन्होंने कहा, "देश ही नहीं, दुनिया में लोगों ने चिपको से प्रेरणा लेकर काम किए हैं. चिपको का ही परिणाम है कि आज कहीं भी पेड़ कटते हैं, तो कम से कम उसके खिलाफ आवाज उठती है. आज भी जर्मनी में जंगल बचाने के लिए चिपको जैसा आंदोलन चल रहा है. जल, जंगल की समस्या जबतक रहेगी, चिपको आंदोलन प्रासंगिक बना रहेगा."
पद्मभूषण से सम्मानित भट्ट ने कहा, "हां, यह अलग बात है कि आज की पीढ़ी भोग में अधिक लिप्त है. उसे सिर्फ विकास दिखाई दे रहा, लेकिन उसके पीछे छिपा विनाश दिखाई नहीं दे रहा है. जब वह भुक्तभोगी होगी, तो खुद आंदोलित हो उठेगी. हम नई पीढ़ी को जागरूक कर रहे हैं. दूसरी बात यह कि सरकारें पांच साल के लिए आती हैं, और वे अगला चुनाव जीतने के लिहाज से काम करती हैं. उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव होता है. कानून बन जाते हैं, लागू नहीं हो पाते. लेकिन जब जनता जागरूक होगी, तो सरकारों को भी काम करना होगा."
सन् 1980 का वन कानून वन संरक्षण में कितना कारगर हुआ? प्रथम राष्ट्रीय वन आयोग के सदस्य रह चुके भट्ट ने कहा, "कानून का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है. पहले वनों से जनता का जुड़ाव होता था. आज वनकर्मियों के रवैये के कारण जनता वन संरक्षण को सरकार का काम मान बैठी है. वन सरकारी हो गए हैं."
हिमालय के जंगलों में आग लगने की घटनाएं वार्षिक परंपरा बनती जा रही हैं. पर्यावरण के साथ ही मनुष्यों और जंगली पशुओं के लिए यह बड़ा खतरा बनता जा रहा है. इस बारे में भट्ट ने कहा, "इसके पीछे कारण साफ है. लोग वन संरक्षण के काम को सरकारी मान बैठे हैं. पहले हर गांव के अलग-अलग जंगल होते थे, गांव के लोग उसका संरक्षण और संवर्धन करते थे. किसी गांव के जंगल में आग लगती थी तो उस गांव के लोग मिलकर बुझाते थे. लोग जंगलों से कट गए हैं, या फिर उन्हें काट दिया गया है."
उल्लेखनीय है कि 1988 की राष्ट्रीय वन नीति के तहत संयुक्त वन प्रबंधन नामक कार्यक्रम शुरू किया गया था, जिसके तहत वन संरक्षण-संवर्धन का काम वन विभाग और स्थानीय लोगों को मिलकर करना था. लेकिन आज देश के कई हिस्सों में वन अधिकार को लेकर, खासतौर से वनवासियों और वन विभाग के बीच संघर्ष की स्थितियां बनी हुई हैं.
चंडी प्रसाद कहते हैं, "वनों पर स्थानीय लोगों का प्राकृतिक अधिकार होता है. लेकिन कानून होने के बावजूद इसे नकारा जा रहा है. वर्ष 2003 में पहला राष्ट्रीय वन आयोग बना, इन्हीं सब समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए. सात सदस्यों में मैं भी शामिल था. मेरे अलावा बाकी सभी सदस्यों ने वनों पर जनता के अधिकार का विरोध किया था. मैंने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि सामुदायिक जुड़ाव के बगैर वन संरक्षण असंभव है. लेकिन आज वैश्वीकरण के दबाव के आगे सबकुछ बेमानी हो गया है."
सरोज कुमार (आईएएनएस)