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'टैलेन्ट कैंपस' में युवा फ़िल्मकारों की धूम

सचिन गौड़ (संपादन: ए जमाल)२२ फ़रवरी २०१०

बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल यानी बर्लिनाले अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मकारों की फ़िल्मों को शामिल करता ही है, चुनिंदा युवा फ़िल्मकारों को भी आमंत्रित करता है. युवाओं के लिए टैलेन्ट कैंपस फ़िल्म की बारीकियां समझने का एक मंच बनता है.

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तस्वीर: picture-alliance/ dpa

टैलेन्ट कैंपस में शरत राजू भी अमेरिका से बर्लिन आए थे. शरत राजू भारतीय मूल के अमेरिकी निर्देशक हैं. राजू के माता पिता 1970 के दशक में अमेरिका में बस गए थे. उनकी जड़ें कर्नाटक के मैसूर शहर में हैं और दादा कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध कवि थे. बचपन से ही उनका कला की ओर रूझान रहा. ख्याति प्राप्त अमेरिकन फ़िल्म इंस्टीट्यूट से उन्होंने मास्टर्स डिग्री हासिल की.

Thomas Jacob
थॉमस जैकबतस्वीर: DW

5-6 साल पहले राजू ने ‘अमेरिकन मेड' फ़िल्म बनाई जिसे लगभग 20 अवॉर्ड मिले. अमेरिका में सितंबर 2001 की घटना के बाद एशियाई समुदाय के ख़िलाफ़ कई नफ़रत भरे हमले हुए. उस पर बनी फ़िल्म ‘डिवाइडेड वी फ़ॉल' ने भी प्रशंसा बटोरी. और अब राजू भारत में एक हॉरर फ़िल्म बनाने जा रहे हैं. तीनों फ़िल्में बिलकुल अलग विषयों पर.

राजू कहते हैं कि उनके लिए फ़िल्म की कहानी ही अहम है. अगर कोई कहानी, कोई मुद्दा उन्हें अपील करता है तो वह फ़िल्म बनाने का फ़ैसला करते हैं. वह हर तरह की फ़िल्में बनाना चाहते हैं. कुछ समय पहले उन्होंने भारत में एक संगठन के लिए डोक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जिसमें दिखाया गया था कि ग़रीब स्कूली बच्चे किस तरह से कंप्यूटर की पढ़ाई कर रहे हैं.

अमेरिका में ही पले बढ़े शरत राजू ने कुछ साल अमेरिका में पत्रकारिता की और फिर उनके क़दम फ़िल्मों की ओर मुड़ गए. मैंने उनसे पूछा कि फ़िल्म बनाते समय जब वह कोई फ़ैसला करते हैं तो क्या वह एक अमेरिकी की तरह सोचते हैं या फिर भारतीय की तरह.

Berlinale Talent Campus
तस्वीर: Berlinale 2010

राजू का कहना है,“ मैं अमेरिकी भी हूं और भारतीय भी. मैं अपनी सोच को जुदा नहीं कर सकता. फ़िल्म बनाते समय मैं सिर्फ़ यही सोचता हूं कि अगर मैं फ़िल्म देखूंगा तो मेरी क्या प्रतिक्रिया होगी या मैं दर्शकों को किस तरह की फ़िल्म देना चाहता हूं. मैं सिर्फ़ एक अमेरिकी या सिर्फ़ एक भारतीय की तरह नहीं सोचता.”

थॉमस जैकब मुंबई के युवा डायरेक्टर, स्क्रीनराइटर हैं और उन्होंने न्यू यॉर्क से फ़िल्ममेकिंग का कोर्स किया है. थॉमस कुछ हट कर फ़िल्में बनाना चाहते हैं. ख़ास कर उन मुद्दों पर जिन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा. थॉमस के मुताबिक़ बॉलीवुड में अधिकतर प्रेम कहानियों या हल्के फुल्के विषयों पर ही फ़िल्में बनती हैं. लेकिन वह गंभीर विषयों पर फ़िल्म बनाने की इच्छा रखते हैं. थॉमस का कहना है कि बचपन से ही उन्होंने कई समस्याओं को देखा और तय कर लिया था कि एक दिन फ़िल्मों के माध्यम से इन्हें उठाएंगे.

थॉमस जैकब को लातिन अमेरिकी देशों की फ़िल्में ज़्यादा पंसद आती हैं. मैक्सिको, अर्जेंटीना और ब्राज़ील जैसे देशों की. क्योंकि उनकी राय में वहां वास्तविक मुदों पर काम करने की कोशिश हो रही है. वैसे थॉमस के लिए फ़िल्म लाइन में आने की इजाज़त लेना आसान नहीं था. उनके माता पिता की इच्छा थी कि वह डॉक्टर या इंजीनियर बने लेकिन थॉमस की दिलचस्पी को समझ कर बाद में उन्होंने फ़िल्म लाइन में करियर को हरी झंडी दे ही दी.

Berlinale Talent Campus
तस्वीर: David Ausserhofer Berlinale 2010

मेघा लखानी चेन्नई में रहती हैं और डोक्यूमेंट्री फ़िल्मों में उनकी ख़ासी रूचि हैं. उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी और विज़ुअल कम्युनिकेशन की पढ़ाई की है. उनका कहना है कि फ़िल्ममेकिंग उन्हें ठीक उसी तरह पसंद है जिस तरह किसी पेंटर को अपनी पेंटिंग से लगाव होता है.

मेघा लखानी अपना ध्यान सिर्फ़ डोक्यूमेंट्री फ़िल्मों पर ही केंद्रित करना चाहती हैं. हां, वो यह ज़रूर मानती हैं कि भारत में डोक्यूमेंट्री फ़िल्में उतना लोकप्रिय अभी नहीं है. भारत में डोक्यूमेंट्री की कम लोकप्रियता भले ही हो लेकिन मेघा का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उन्हें अपनी फ़िल्मों के प्रदर्शन का मौक़ा मिलता है.

फ़िल्म बनाना एक टीम वर्क है. उसके लिए पैसों की भी ज़रूरत पड़ती है. कई बार व्यवसायिक मजबूरियां भी होती हैं. ऐसे में भारत में अलग विषयों, गंभीर मुद्दों पर फ़िल्म या डोक्यूमेंट्री बनाना क्या मुश्किल साबित नहीं होगा. मेघा का मानना है कि आने वाले समय में बदलाव ज़रूर आएगा और भारत में भी डोक्यूमेंट्री फ़िल्में लोकप्रिय होंगी. फ़ंडिंग के लिए उन्हें कई संस्थाओं की मदद मिल जाती है इसलिए उन्हें इतनी निराशा नहीं है. थॉमस जैकब कहते हैं कि जो रास्ता उन्होंने चुना है उसमें मुश्किलें आएंगी लेकिन भरोसा जताते हैं कि चुनौतियों का सामना करने का जज़्बा उनमें है. अपनी ओर से वह 100 फ़ीसदी देने की पूरी कोशिश करेंगे.