टीबी की रोकथाम
१० नवम्बर २००८है. विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO का कहना है कि हर साल क़रीब 20 लोग इस जानी-पहचानी बीमारी के कारण दम तोड़ बैठते हैं. हर साल 90 लाख लोगों को यह बीमारी लग रही है. इधर कुछ वर्षों से इस बीमारी का फैलना और बढ़ गया है. जिसे एड्स के वॉयरस का संक्रमण लग गया हो, उसे टीबी होने और उससे दम तोड़ देने का ख़तरा और भी बढ़ जाता है. यही नहीं, उन बैक्टीरिया-क़िस्मों की संख्या भी बढ़ रही है, जिन पर क्षयरोग की दवाओं का कोई असर नहीं होता.
इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने, 2006 में, एक योजना बनायी कि पूरी तरह रोकथाम न सही, 2015 तक क्षयरोग के बढ़ने को तो कम-से-कम रोक दिया जाये. इस योजना पर कुल 20 अरब डॉलर का ख़र्च आयेगा.
टीबी इलाज की चुनौतियां
2005 से Treatment Action Group, संक्षेप में TAG नाम की एक ग़ैर सरकारी संस्था भी क्षयरोग के विरुद्ध युद्ध में शामिल हो गयी है. यह संस्था वास्तव में बनी तो थी एड्स पीड़ितों को बेहतर उपचार दिलाने के लिए. लेकिन, जब से उसने देखा है कि अधिकांश एड्स-पीड़ित अंततः टीबी के कारण मृत्यु का ग्रास बनते हैं, तब से उसने टीबी संबंधी शोधकार्यों में भी रूचि लेना शुरू कर दिया है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2015 तक की क्षयरोग की रोकथाम योजना में शोधकार्यों पर नौ अरब डॉलर ख़र्च करने का प्रावधान है. टीएजी के कार्यकारी प्रबंधक मार्क हैरिंगटन का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की योजना ज़बानी जमा-ख़र्च अधिक और ठोस कार्य कम है, "हमारा सर्वेक्षण दिखाता है कि योजना के लिए 40 मुख्य धनदाता देशो ने क्षयरोग संबंधी शोध और विकास कार्यों के लिए अपना अंशदान, 2005 से 2007 के बीच, केवल 19 प्रतिशत बढ़ाया है. पिछले वर्ष तो उन्होंने केवल छह प्रतिशत ही अधिक धन दिया. यह तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की योजना वाले लक्ष्य के मात्र आधे के बराबर ही पहुँचता है... इस तरह तो हम क्षयरोग को नहीं हरा सकेंगे."
इस समय एलर्जी और संक्रामक रोगों संबंधी अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग सबसे बड़ा धनदाता है. उसके बाद बिल गेट्स के एड्स ट्रस्ट का नंबर आता है. हैरिंगटन का कहना है कि आम तौर पर वह राजनैतिक इच्छाशक्ति ही नहीं है, जो तपेदिक जैसी बीमारी से लड़ने के लिए होनी चाहिये. टीबी या तपेदिक ग़रीबों की बीमारी है. पैसों वाले ग़रीबों की वकालत भला क्यों करें!
आसान नहीं इलाज
कहना चाहिये कि कहीं-न-कहीं दूरदर्शिता का भी अभाव है. तपेदिक के संक्रमण का हर नौवाँ मामला बैक्टीरिया कि किसी ऐसी प्रतिरोधी क़िस्म को दिखाता है, जिस पर एक नहीं, कई प्रकार की दवाओं का कोई असर नहीं होता. हर बीसवें रोगी को सही ढंग का उपचार नहीं मिलता. यह स्थिति तब है, जब हम यह भी जानते हैं कि इस पृथ्वी के औसतन हर तीसरे निवासी के शरीर में टीबी का रोगाणु पहले से ही मौजूद है. अच्छी बात यह है, मार्क हैरिंगटन के अनुसार, कि अब भारत, चीन और ब्राज़ील भी टीबी से लड़ने की विश्वव्यापी योदना में शामिल हो गये हैं, "ये क्षयरोगियों के सबसे अधिक अनुपात वाले देश हैं. स्वयं दक्षिण अफ्रीकी भी इस वैश्विक कोष में पैसा देने जा रहा है. चीन क्षयरोग संबंधी शोध के लिए अगले वर्ष 10 करोड़ डॉलर ख़र्च करने जा रहा है. सबसे अधिक धनदाता 20 देशों में ब्राज़ील का भी नाम है, जबकि भारत क्षयरोग-शोध पर इस बीच फ्रांस से अधिक पैसा ख़र्च कर रहा है. हमें ग़रीब देशों की आगे भी मदद करनी चाहिये. हमारे पास अधिक पैसा भी है और बेहतर शोध सुविधाएँ भी हैं. जिस बीमारी से हम सब को ख़तरा हो, उसके उन्मूलन में हमारा भी योगदान होना ही चाहिये."
नए इलाज की ज़रूरत
टीबी की रोकथाम के लिए अब एक नये टीके की ज़रूरत है, लेकिन इसमें वर्षों का समय लग सकता है. वैज्ञानिकों का क्रिएट (Create) नाम का एक कंसोर्टियम, जो एड्स रोगियों को टीबी से बचाने का काम करता है, टीके के मामले में भी सहायता दे रहा है. उसकी दृष्टि में जर्मनी में बायर कंपनी की दवा Moxifloxacin, जो अब तक साँस की बीमारियों के समय एंटीबायॉटिक के तौर पर दी जाया करती है, काफ़ी आशाजनक लगती है. बल्टिमोर में जॉन हॉपकिन यूनीवर्सिटी के क्षयरोग केंद्र के रिचर्ड चैसन क्रिएट के शोध विभाग के निदेशक हैं, "कई अध्ययनों में देखा गया है कि यह दवा क्षयरोग के मामले में भी बहुत कारगर है. अब क्रिएट की ओर से बड़े अध्ययनों में हमें यह पता लगाना है कि, उसकी सहायता से क्या उपचार का समय भी घटाया जा सकता है."
दवा कंपनी सानोफ़ी-अवेंतीस (Sanofi-Aventis) की बनायी रिफ़ापेंटीन (Rifapentin) से भी काफ़ी आशाएँ हैं. यह दवा वैसे तो काफ़ी समय से बाज़ार में है, लेकिन वैज्ञानिक उसकी कार्यविधि को अब जा कर समझ पाये हैं, "प्रयोगशाला और डॉक्टरी परीक्षणों में देखने में आया है कि इस दवा के द्वारा क्षयरोग को, अब तक के छह महीनों के बदले, केवल तीन महीनों में ही ठीक किया जा सकता है. यह भी लगता है कि रिफ़ापेंटीन एड्स के रोगियों को क्षयरोग के संक्रमण से बचा सकती है."
वैज्ञानिक इस समय टीबी और एड्स के रोगियों की कम-से-कम समय में पहचान कर सकने की विधियों का पता लगाने के लिए भी ज़ोरशोर से काम कर रहे हैं.