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टिकट खरीद कर मार्क्स की समाधि पर क्यों जाते हैं लोग?

४ मई २०१८

दुनिया भर के युवा लंदन की हाईगेट सेमेट्री में उमड़े चले आते हैं. वो किसी शैतान को पत्थर मारने नहीं बल्कि कम्युनिस्ट विचारधारा की नींव रखने वाले कार्ल मार्क्स को श्रद्धांजलि देने आते हैं.

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UK Grabstäte von Karl Marx auf dem Highgate Friedhof
तस्वीर: picture-alliance/dpa/C. Donhauser

कार्ल मार्क्स तक पहुंचने का रास्ता बहुत सारे पूंजीवादियों से हो कर गुजरता है. लंदन के जिस हाईगेट इलाके में उन्हें दफनाया गया वो धरती के कुछ सबसे अमीर लोगों का पता है. ये वो लोग हैं जो ऊंची चारदीवारी और गेट के भीतर रहना पसंद करते हैं. हाइगेट सेमेट्री में सिर्फ अंदर जाने के लिए ही आपको चार पाउंड यानी करीब 320 रुपये का टिकट लेना पड़ता है. हालांकि इसके साथ आपको एक नक्शा मिल जाता है जिसमें महत्वपूर्ण कब्रों का जिक्र है. इसमें एक नाम लाल स्याही से दर्ज है और वह है "मार्क्स."

थोड़ी दूर से ही एक जगह नजर में आ जाती है, जहां जानी पहचानी बालों की लट ऊपर पेड़ तक पहुंचती दिखती है. कुछ कदम और चलिए तो आप खुद को कांसे की आधे धड़ की प्रतिमा के सामने पाएंगे जिसे ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने 1956 में लगवाया. कुछ लोग मानते हैं कि झबरीली भौहों के चलते वह कठोर दिखते हैं, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि वे दयालु दिखते हैं. नीचे की पट्टी पर "दुनिया भर के मजदूरों एक हो" का नारा नहीं लिखा होता तो बहुत से लोगों को यह भी लगता कि यहां सांता क्लॉज को दफनाया गया था. 

यहां दोपहर बिताने के लिए समय निकालने वाले किसी भी शख्स से आप पूछेंगे तो वह तुरंत ही कहेगा कि 200 साल पहले 5 मई 2018 को ट्रियर में जन्मे कार्ल मार्क्स अब एक धर्म सरीखे हैं. नारे वाली पट्टी के पास मोमबत्तियां, फूल और ताजे अनानास का ढेर दिखाई देता है. यहां आने वालों की कतार कभी खत्म नहीं होती. ज्यादातर लोग युवा हैं और दुनिया के कोने कोने से आए हैं. 

Beerdigung von George Michael - Highgate Cemetery in London
तस्वीर: Reuters/N. Hall

2008 की आर्थिक मंदी के बाद मार्क्स की एक तरह से वापसी हुई है. इस बात में कुछ सच्चाई है कि इस बीच नई पीढ़ी ने उन्हें ढूंढा है. ये वो युवा हैं जिनके जेहन में शीत युद्ध की यादें नहीं हैं. उनके लिए मार्क्स ना तो रक्षक है ना शैतान बल्कि एक दार्शनिक हैं जो प्रासंगिक हैं.

"कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो" के कुछ अंशों ने मार्क्स के समकालीनों को चक्कर में डाल दिया लेकिन 21वीं सदी में उन्हें पढ़ने वाले ऐसा नहीं सोचते. 1848 में ही मार्क्स ने लिख दिया था, "उत्पादन में लगातार आमूल परिवर्तन ने सभी सामाजिक स्थितियों में निरंतर बाधा उत्पन्न की." यह तब की बात है जब जर्मनी में भी औद्योगिक क्रांति शुरू नहीं हुई थी. मार्क्स ने ही यह भी लिखा, "बुर्जुआ वर्ग ने दुनिया के बाजारों का शोषण करके हर देश को उत्पादन और उपभोग का सर्वव्यापी चरित्र दे दिया है." आज इसी परिभाषा को ग्लोबलाइजेशन या वैश्वीकरण की संज्ञा दी जाती है.

मार्क्स की बहुत पक्की धारणा थी कि पूंजीवाद ऐसी जमाखोरी की तरफ ले जाएगा जिनसे पूरी दुनिया में फैले मुट्ठी भर कॉर्पोरेशनों का निर्माण होगा. मार्क्स ने केवल आर्थिक विकास के नतीजों का ही पूर्वानुमान नहीं लगाया बल्कि संस्कृतियों के मेलजोल का भी. हालांकि जर्मन दार्शनिक की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने पूंजीवाद के खुद को परिस्थितियों के अनुरूप ढालने की क्षमता को कम करके आंका. मतदान के अधिकार का विस्तार हुआ, सामाजिक सुधार लागू किए गए. इन सब का नतीजा यह हुआ कि मार्क्स ने जिस क्रांति की कल्पना की थी वह पश्चिमी जगत में कभी हुई ही नहीं.

इस मामले में आज वो यह दलील दे सकते थे कि सस्ती मजदूरी वाला जो क्षेत्र था वह यूरोपीय देशों से बाहर चला गया. मार्क्स ने दास कैपिटल में लिखा, "एक छोर पर धन जमा होगा तो इसी वजह से दूसरे छोर पर गरीबी, मजदूरी का अभिशाप, गुलामी, अनदेखी, क्रूरता और नैतिक पतना होगा." उनके लिखे शब्दों को दुनिया ने बांग्लादेश की शोषण करने वाली कपड़ा फैक्ट्रियों में देखा है. इसके साथ ही यूरोपीय देशों में सामाजिक कल्याण के कदमों से सरकारें पीछे हट रही हैं. मार्क्स में लोगों की दिलचस्पी जगने की एक वजह यह भी है कि अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है. 1930 से 1980 के बीच इन दोनों वर्गों के बीच का अंतर लगभग स्थिर था.

साम्यवादी पूर्वी यूरोप की तुलना में लगभग सभी पूंजीवादी राष्ट्रों ने बड़ी सक्रियता से धन का बंटवारा किया. मार्क्स की नई जीवनी लिखने वाले युर्गेन नेफे पूछते हैं, "आज यह कौन जानता है कि 1950 के दशक में अमेरिका में आयकर की सबसे ऊंची दर 90 फीसदी होगी और ब्रिटेन में करीब 100 फीसदी, आखिर में इतनी ऊंची कि कोई उसे चुका ही ना सके."

200. Geburtstag Karl Marx
तस्वीर: picture-allilance/dpa/H. Tittel

फ्रांस के मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने अपनी किताब कैपिटल इन 21 सेंचुरी में लिखा है, "अमेरिकी राष्ट्रपति रोनल्ड रीगन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर जैसे राजनेताओं ने 19वीं सदी के विशुद्ध पूंजीवाद के पन्ने पलटने शुरू किए." पिकेटी के सिद्धांतों पर भी विवाद है लेकिन कम से कम एक मुद्दा आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि 19वीं सदी में औद्योगीकरण के वक्त था. यह वह सवाल है जिससे मार्क्स अपनी पूरी जिंदगी जूझते रहे, "धन का न्यायोचित बंटवारा कैसे हो?"

मार्क्स ने बुर्जुआ वर्ग को खत्म करने के लिए राजनीतिक कार्यक्रम बनाया हालांकि वह खुद बुर्जुआ की तरह जीवन जीते थे जिसमें दर्जनों नौकर चाकर, समंदर के किनारे छुट्टियां, बच्चों के लिए पियानो क्लास जैसी चीजें थीं. मार्क्स ने एक सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की योजना बनाई, हालांकि उनका खुद मजदूरों से कोई रिश्ता नहीं था. ऐसा करने के जब एक आध मौके आए भी तो उसमें गड़बड़ ही हो गई. एक बार उन्होंने सड़क की लड़ाई में मध्यस्थता करने की कोशिश की लेकिन मजदूर उन्हीं के खिलाफ हो गए और उनकी दाढ़ी खींचने लगे.

मार्क्स कौन थे? हर पीढ़ी इस सवाल का अपना जवाब ले कर आती है. लेकिन क्या मान्य रहता है यह उनके समकालीन और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के सह लेखक फ्रीडरिष एंगल्स ने 1883 में उनके अंतिम संस्कार के वक्त हाइगेट में कहा था, "उसका नाम सदियों तक चलता रहेगा और इसलिए उसका काम भी."

एनआर/एमजे (डीपीए)