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जेलों में भेड़-बकरी की तरह रहते इंसान

प्रभाकर मणि तिवारी
४ अप्रैल २०१८

भारत की जेलों में कैदियों को भेड़-बकरियों की तरह ठूंस-ठूंस कर रखा जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में इस स्थिति पर गहरी चिंता जताते हुए कहा है कि अगर कैदियों को ठीक से नहीं रखा जा सकता तो उनको रिहा कर देना चाहिए.

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Indien Tihar Gefängnis in New Delhi
तस्वीर: ROBERTO SCHMIDT/AFP/GettyImages

जेलों की यह हालत तब है जबकि देश में आबादी के लिहाज से जेलों में रहने वाले लोगों की तादाद पड़ोसियों और दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले बहुत कम है.

अदालत की फटकार

सुप्रीम कोर्ट में बीते सप्ताह जेलों की दशा पर एक मामले की सुनवाई के दौरान अदालत को बताया गया कि देशभर के 13 सौ से ज्यादा जेलों में से ज्यादातर में क्षमता से बहुत ज्यादा कैदी रह रहे हैं और कुछ मामलों में तो यह छह सौ फीसदी तक है. न्यायमूर्ति एम.बी.लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने तमाम राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के पुलिस महानिदेशकों (जेल) को चेतावनी देते हुए कहा है कि जेलों में क्षमता से ज्यादा भीड़ के मुद्दे से निपटने के लिए अदालत के पहले के आदेश के मुताबिक एक कार्य योजना जमा करने में नाकाम रहने की वजह से उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला चलाया जा सकता है.

खंडपीठ ने कहा, मौजूदा आंकड़ों से साफ है कि कैदियों के मानवाधिकारों के प्रति राज्य सरकारों का रवैया ठीक नहीं है. इसके अलावा इससे यह भी पता चलता है कि विचाराधीन समीक्षा समितियां अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं निभा रही हैं. ध्यान रहे कि हर जिले में गठित यह समिति विचाराधीन या सजा पूरी कर लेने वाले या जमानत पाने वाले कैदियों की रिहाई के मामलों की लगातार समीक्षा करती है.

अदालत ने राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को दो सप्ताह के भीतर इन समितियों के कामकाज की प्रक्रिया पर हलफनामा दायर करने को कहा है ताकि वह प्रभावी तरीके से काम कर सकें. सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले भी छह मई, 2016 और तीन अक्तूबर, 2016 को जेलों की भीड़ कम करने के लिए एक कार्ययोजना बनाने का निर्देश दिया था. अदालत ने उनसे 31 मार्च, 2017 तक इसे जमा करने को कहा था. लेकिन किसी भी राज्य ने ऐसा नहीं किया है. अब सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाते हुए अपने पहले के फैसलों पर दो सप्ताह के भीतर अमल करने या अवमानना का मामला झेलने के लिए तैयार रहने को कहा है.

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जेल कर्मचारियों की कमी

सुप्रीम कोर्ट ने देश में जेल कर्मचारियों की कमी पर भी गहरी चिंता जताई है. इस मुद्दे पर नेशनल लीगल सर्विस अथारिटी (नालसा) की ओर से पेश रिपोर्ट पर चिंता जताते हुए अदालत ने पुलिस महानिदेशकों (जेल) से साफ-साफ यह बताने को कहा है कि खाली पदों को भरने की दिशा में क्या उपाय किए गए हैं और दो सप्ताह में इस दिशा में कितनी प्रगति हुई है. नालसा की रिपोर्ट के मुताबिक, देश भर की जेलों में कर्मचारियों की अनुमोदित क्षमता 77,230 है लेकिन इनमें से 31 दिसंबर, 2017 तक 24,588 यानी 30 फीसदी से भी ज्यादा पद खाली थे.

Indien Kalkutta versteckte Zeugnisse der Unabhängigkeit
तस्वीर: DW/Payel Samanta

इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट समेत कई अदालतें जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की रिहाई के मामले में भी सरकारों को लताड़ चुकी हैं. इनमें ज्यादातर कैदी ऐसे हैं जिनकी या तो सजा पूरी हो चुकी है या फिर उनको जमानत मिल गई है. लेकिन मुचलका नहीं दे पाने की वजह से वह जेलों में ही रहने पर मजबूर हैं. दिल्ली हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने बीते दिनों अपने एक ऐतिहासिक पैसले में कहा था कि किसी कैदी को जमानत देने वाले जज की जिम्मेदारी है वह आखिर तक अपने आदेश के लागू होने पर निगाह रखे. दिल्ली हाईकोर्ट के उक्त आदेश के बाद कम से कम तीन सौ कैदियों को रिहा किया जा चुका है. इन कैदियों की हालत पर जनहित याचिका दायर करने वाले एडवोकेट अजय वर्मा कहते हैं, "देश की विभिन्न जेलों में अब तक हजारों ऐसे विचाराधीन कैदी रह रहे हैं जिनको बहुत पहले छूट जाना चाहिए था."

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश भर की जेलों में 60 फीसदी से ज्यादा विचाराधीन कैदी हैं. इनमें से हजारों लोग तो पांच साल या उससे भी ज्यादा समय से जेल में रह रहे हैं.

जेलों में रहने वाले कम

यह स्थित तब है जब पड़ोसी देशों और दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले भारत में आबादी के लिहाज से जेलों में रह रहे कैदियों की तादाद बहुत कम है. इंस्टीट्यूट फॉर क्रिमिनल पालिसी रिसर्च के आंकड़ों के मुताबिक, अमेरिका में जहां प्रति एक लाख की आबादी में से 666 लोग सींखचों के पीछे हैं वहीं भारत में यह आंकड़ा 33 है. पड़ोसी देशों में पाकिस्तान में यह दर 44, नेपाल में 65, श्रीलंका में 78, बांग्लादेश में 48 व चीन में 118 है. भारत में फिलहाल 4.20 लाख लोग विभिन्न जेलों में रह रहे हैं.

Alipore Zentralgefängnis Kalkutta Indien
तस्वीर: DW/Prabhakar Mani

जेलों की स्थिति से संबंधित मामले में सुनवाई में सहायता के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त सलाहकार गौरव अग्रवाल कहते हैं, "देश की ज्यादातर जेलों में क्षमता से डेढ़ सौ फीसदी से भी ज्यादा कैदी अमानवीय परिस्थितियों में रह रहे हैं. एक मामले में तो यह आंकड़ा 609 फीसदी का है. वह कहते हैं कि राज्य सरकारें या केंद्रशासित प्रदेश जेलों में कर्मचारियों के खाली पदों को भरने में खास उत्सुक नहीं हैं. पूछने पर सबका रटा-रटाया जवाब होता है कि इसकी प्रक्रिया चल रही हैं.

एक गैर-सरकारी संगठन के संयोजक एडवोकेट दीपंकर सरकार कहते हैं, "जेलों की हालत पर कभी किसी सरकार ने ध्यान नहीं दिया. जब कहीं कोई बड़ी घटना होती है तो प्रशासन का ध्यान इनकी ओर जाता है. लेकिन फिर सबकुछ जस का तस हो जाता है." सरकार का कहना है कि न्यायिक प्रक्रिया के लंबा खिंचने की वजह से भी जेलों में विचाराधीन कैदियों की तादाद लगातार बढ़ रही हैं. वह कहते हैं, "जमीनी स्थिति में सुधार के बिना जेल सुधारों की बात करना बेमानी है."