1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

जलवायु नहीं, इंसान बदले

२३ अगस्त २०१५

दुनिया भर में उम्रदराज लोग यह मान रहे हैं कि मौसम गड़बड़ा चुका है. लोग अपने अपने स्तर पर इसे सुधारना भी चाहते हैं लेकिन वैज्ञानिक समुदाय में पड़ी फूट और यदा कदा सामने आते कपटी इरादे निराश कर रहे हैं.

https://p.dw.com/p/1GJYo
तस्वीर: Fotolia/st__iv

धरती का तापमान बढ़ रहा है और बदलता मौसम इंसान के सामने चुनौतियां खड़ी कर रहा है. समुद्र का जलस्तर बढ़ने से जमीन डूब रही है. दूसरी तरफ रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है. इन परिस्थितियों के बीच जनसंख्या लगातार बढ़ रही है. 2050 तक यह 9.7 अरब हो जाएगी, यानि 2.5 अरब नए लोग जुड़ जाएंगे. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो घटती जमीन पर आबादी बढ़ रही है. इतने लोगों के लिए खाना और दूसरी सुविधाएं उपलब्ध कराना आसान नहीं होगा. अन्न के लिए जंगल कटेंगे, उन पर खेत बनेंगे. और फिर आवास के लिए खेतों पर क्रंकीट के टावर खड़े किए जाएंगे. यानि खुला और प्राकृतिक भूक्षेत्र एक बार फिर कम होगा. मौसमी बदलाव नई बीमारियां भी सामने लाएंगे, उनसे भी निपटना होगा.

वह स्थिति भयावह होगी. उससे निपटने के लिए हर स्तर पर अभी से कदम उठाए जाने जरूरी हैं. लेकिन सोलर लाइट या पवनचक्की लगा देने भर से काम नहीं चलेगा. नीति निर्माताओं और बाजार को विकास की परिभाषा बदलनी होगी. मुनाफे के चक्कर में जरूरत से ज्यादा उत्पादन पर लगाम लगानी होगी. गांवों को आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी मोर्चों पर आत्मनिर्भर बनाना होगा. तत्वरित विकास की जगह टिकाऊ विकास पर जोर देना होगा. सार्वजनिक परिवहन को तनावमुक्त बनाना होगा. सामाजिक स्तर पर भी शारीरिक परिश्रम को सम्मान देना जरूरी है. विकास के मौजूदा दौर में खुद को एकाकी करता इंसान जीवन को सुलभ बनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा मशीनों का इस्तेमाल करने लगा है. इस मानसिकता को बदलना होगा.

Deutsche Welle Hindi Onkar Singh Janoti
तस्वीर: DW/P. Henriksen

वैज्ञानिक समुदाय को भी वाहवाही के सर्कस से बाहर निकलना होगा. खुद को बढ़ा चढ़ाकर दिखाने के चक्कर में सनसनीखेज रिपोर्ट प्रकाशित करने या बेहद सतही सर्वे प्रकाशित करने के बजाए युवा वैज्ञानिकों को गहराई में जाना होगा. वरना आईपीसीसी जैसा हाल होगा. 2007 में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण संस्था आईपीसीसी को साझा तौर पर नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया. पुरस्कार लेने पहुंचे तत्कालीन आईपीसीसी अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र पचौरी से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ साथ आने की अपील की. पुरस्कार और उससे जुड़े प्रशस्ति गीत अभी चल ही रहे थे कि आईपीसीसी ने दावा किया कि 2035 तक हिमालय के ज्यादातर ग्लेशियर पिघल जाएंगे. 2013 में पता चला कि आईपीसीसी का दावा गलत था. इस घटना से नुकसान न तो आईपीसीसी को हुआ और न ही विरोधी पक्ष को. इसकी सबसे ज्यादा कीमत चुकाई पर्यावरण ने. उसे बचाने को लेकर शुरू हुई एक सार्थक बहस कुछ लोगों की बेवकूफी से तबाह हो गई. ऐसे कई और उदाहरण हैं जिनके चलते आम लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर असमंजस में घिर चुके हैं.

हालांकि जलवायु परिवर्तन को लेकर खुद वैज्ञानिक समुदाय में कोई मतभेद नहीं हैं. सब मानते हैं कि धरती का तापमान बढ़ रहा है. विवाद तो यह है कि वैज्ञानिकों का एक धड़ा कहता है कि यह इंसानी गतिविधियों की वजह से हो रहा है तो दूसरा कहता है कि बदलाव प्राकृतिक है. इस बहस में आम लोगों की राय को जगह नहीं दी जाती क्योंकि रिपोर्ट तैयार करने वालों को आंकड़े चाहिए, अनुभव नहीं. यह भी एक बड़ी भूल है. कुछ जानकारियां इंसान को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलती हैं. उन्हें पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन और ग्राफिक्स के सामने सिरे से खारिज करना ठीक नहीं. दुनिया भर में आज भी ऐसे बुजुर्गों की कमी नहीं है जो अपने स्थानीय पर्यावरण के बारे में बहुत ही अच्छी जानकारी रखते हैं. करोड़ों गांवों में ऐसे लोग हैं जो फसल, वन्य जीवों, पेड़ पौधों या मौसम में आने वाले बदलाव भांप लेते हैं. उनकी स्मृतियों में बीते 80 से 100 साल का मौसम है. जरूरत उनके व्यवहारिक ज्ञान को आधुनिक विज्ञान से जोड़ने की है. एक ऐसे वक्त में जब सर्वनाश की अटकलें लगाई जाने लगें, तो जरूरी है कि हर व्यक्ति भाषा, धर्म, देश और महाद्वीप के सोच से बाहर निकले और अपनी बुद्धि के सार्थक उपयोग से आत्महत्या करने पर उतारू मानव प्रजाति को रोके.

ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी