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जर्मन प्रेस की नजर में अरुंधती रॉय

३० अक्टूबर २०१०

जर्मन अखबारों में भारत के सिलसिले में आर्थिक मुद्दे ही देखने को मिले, लेकिन कम से कम एक अखबार में कश्मीर पर अरुंधती रॉय के बयान से उपजे विवाद का जिक्र किया गया.

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तस्वीर: AP

म्युनिख से प्रकाशित दैनिक जुएडडॉएचेत्साइटुंग में इस सिलसिले में कहा गया है:

वह कहती हैं कि वह उकसाना नहीं चाहती थीं, बल्कि एक न्यायपूर्ण समाज के लिए आवाज उठा रही थीं. दिल्ली में इस विवादग्रस्त क्षेत्र के बारे में हुई एक संगोष्ठी में भारतीय लेखिका अरुंधती रॉय ने कहा कि कश्मीर "कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं था". उन्होंने कहा कि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिसे भारत सरकार भी स्वीकार करती है. बाद में उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर में हिंसा का चक्र रुकना चाहिए, लोग "विश्व के सबसे क्रूर सैनिक कब्जे" के तले पिस रहे हैं. भारत में अरुंधती रॉय के अनेक कट्टरपंथी विरोधी हैं, और उनका आरोप है कि वह हिंसा का बीज बो रही है और देश की एकता को खतरे में डाल रही हैं.

लेकिन अधिकतर रिपोर्टें आर्थिक मुद्दों पर थीं. जर्मनी के आर्थिक समाचार पत्र हांडेल्सब्लाट में 1998 के नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ एक साक्षात्कार प्रकाशित किया गया है. अमर्त्य सेन की राय में विकास की दहलीज पर खड़े चीन और भारत में विश्वव्यापी वित्तीय संकट से पश्चिम के मुकाबले कहीं बेहतर ढंग से निपटा जा सका है. क्या भारत चीन से आगे निकल सकता है - इस सवाल के जवाब में उनका कहना था:

भारत में अनेक कुशल उद्यम हैं, जो सिर्फ पश्चिम के उद्यमों की नकल नहीं करते. लेकिन मुझे नहीं लगता कि आनेवाले समय में भारत चीन से आगे निकल जाएगा. यह वैसे भी एक गलत सवाल है. दरअसल सवाल यह होना चाहिए कि ये दोनों देश अपने नागरिकों के लिए क्या कर सकते हैं, कैसे वे गरीबी दूर करते हैं. और सबसे बड़ी बात कि कैसे वे चिकित्सीय देखभाल की गारंटी देते हैं.

क्या इस मामले में चीन आगे नहीं है? हांडेल्सब्लाट की ओर से पूछा गया. हामी भरते हुए अमर्त्य सेन ने इसकी वजह के तौर पर कहा कि चीन के विपरीत भारत में मेडिकल बीमा की सुविधा बेहद कम है. लेकिन उनका कहना था कि इसके बावजूद भारत की मिसाल से स्पष्ट हो जाता है कि लोकतंत्र नए विकसित देशों के साथ मेल खाती एक प्रणाली है. इस सिलसिले में उनका कहना था:

लोकतंत्र राजनीतिक प्रक्रिया के संगठन का एक तरीका है. कुछ लोगों की धारणाओं के विपरीत उससे वृद्धि रुकती नहीं है. आर्थिक सुधारों के चलते लोकतांत्रिक भारत में आर्थिक वृद्धि में उछाल आया है. एक लोकतंत्र में भी सामाजिक सुरक्षा में बेहतरी लाई जा सकती है - और मानव अधिकारों का हनन नहीं किया जाता है.

जर्मनी के दूसरे प्रमुख आर्थिक समाचार पत्र फाइनेंशियल टाइम्स डॉएचलांड में भारत के उद्योग व वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा के साथ साक्षात्कार प्रकाशित किया गया है. लगातार आर्थिक वृद्धि के साथ भारत में खुलेपन और खुला बाजार पर काफी जोर दिया जा रहा है. वाणिज्य मंत्री ने उम्मीद जताई कि आने वाले समय में महत्वपूर्ण बहुपक्षीय व्यापारिक संबंध बनेंगे, मिसाल के तौर पर भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार का समझौता. समाचार पत्र में कहा गया है:

इस प्रकार आनंद शर्मा अपने पूर्ववर्ती की स्थिति से हट रहे हैं. खासकर उनकी अवरोध की नीति की वजह से जुलाई 2008 में जेनेवा में वार्तालाप का पिछला दौर विफल हो गया था - भारत अपने बंद कृषि बाजार को खोलने के लिए तैयार नहीं था. सन 2001 से ही विश्व व्यापार संगठन की वार्ताएं चल रही हैं. यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौता भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. यूरोपीय संघ उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. लेकिन यूरोप और जर्मनी के लिए भी आर्थिक वृद्धि की अपनी विशाल संभावना के साथ भारतीय बाजार बेहद महत्वपूर्ण है. अभी ही भारत यूरोपीय संघ का नौंवा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है.

इस सिलसिले में बर्लिन के वामपंथी अखबार नॉएस डॉएचलांड में दूसरे पक्ष की ओर ध्यान दिलाया गया है. अखबार में सामाजिक संगठन अंतरा की डायरेक्टर नित्या घोटगे का एक लेख प्रकाशित किया गया है. वह कहती हैं कि स्थानीय बाजारों में छोटे किसान अपने उत्पाद बेचते हैं. खुदरे व्यापार के क्षेत्र में छोटे दुकानों और पटरी पर बेचने वालों का बोलबाला है. नित्या घोटगे कहती है:

छोटे किसानों और छोटे दुकानदारों के लिए बाजार बंद नहीं था, बल्कि उनकी रक्षा की जा रही थी. हमारी राय में मुक्त व्यापार के समझौते की बातचीत में अब तक सिर्फ भारत और यूरोप के बड़े व्यापार उद्यमों के हितों का ख्याल रखा गया है. भारत की ओर से बातचीत में कौन भाग ले रहा है, वे किनके हितों का ख्याल रख रहे हैं? ये हैं बड़ी कंपनियां, वाणिज्य मंत्रालय और प्रधानमंत्री. बड़े उद्यमों के पीछे अक्सर केयरफोर जैसे बहुराष्ट्रीय उद्यम हैं. व्यापार की नीति वे तय करते हैं.

संकलन: अना लेमान/उ भट्टाचार्य

संपादन: वी कुमार