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जंगलों की कीमत खरबों, आदिवासी फिर भी गरीब

विश्वरत्न श्रीवास्तव१२ अगस्त २०१६

जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने पर्यावरण प्रेमियों की चिंता बढ़ाई है तो इससे जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का विस्थापन भी बढ़ा है. आदिवासी समुदाय अपनी परंपराओं और संस्कृति के खत्म होने की चिंता कर रहा है.

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Indien Westghats
तस्वीर: picture-alliance/bifab

जंगलों और नदियों के संरक्षण से ही प्रकृति का संतुलन बनता है किन्तु विकास की जिस परिभाषा का आज के दौर में सरकारें पालन कर रही हैं उससे आदिवासियों के जीवन में आमूल चूल परिवर्तन आ रहा है. कुछ परिवर्तन तो ऐसे हैं जो आदिवासी जन जातियों को जंगलों के साथ साथ उनकी अपनी संस्कृति से भी दूर कर रहे हैं.

समृद्ध जंगल के गरीब आदिवासी

भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी. देश के जंगलों की कीमत लगभग 1150 खरब रुपये आंकी गई है. ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मेक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है. इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाये खड़ी रहती हैं. आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है.

Khasi Ureinwohner aus Meghalaya Indien
तस्वीर: FINDLAY KEMBER/AFP/Getty Images

हाल ही में संसद से पारित हुए 'प्रतिपूर्ति वनीकरण निधि विधेयक' यानी कैम्पा बिल पर भी सवाल उठ रहे हैं. कांग्रेस सांसद जयराम रमेश का मानना है कि यह विधेयक आदिवासियों के हितों के खिलाफ है. उनका कहना है कि इस विधेयक में ‘वन अधिकार कानून, 2006' के प्रावधान को लागू करने के प्रावधान नहीं हैं. यह विधेयक राज्यों को धन पाने का जरिया उपलब्ध कराता है, लेकिन वे इस पैसे का उपयोग आदिवासियों के विकास के लिए नहीं बल्कि उनका दमन करने के लिए करेंगे.

कैम्पा फण्ड और आदिवासी

भारत के पास कुल 7 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल है. विभिन्न प्रकार के जंगलों की कीमत 10 लाख से लेकर 55 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर है. भारत सरकार ने 1980 के बाद से करीब 13 लाख हेक्टेयर जंगल को गैर जंगल उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत दी है. औद्योगिक समूह वन भूमि के इस्तेमाल के बदले मुआवजे के तौर पर कंपनेसेटरी अफॉरेस्टेशन फंड में पैसा जमा करते हैं. इसके लिए कैम्पा बनाया गया है. कानून के तहत सरकार कैम्पा को संवैधानिक दर्जा देगी जो फंड के इस्तेमाल का काम देखेगी. फंड का 90 प्रतिशत राज्यों के पास औऱ 10 प्रतिशत केंद्र के पास रहेगा.

फंड का इस्तेमाल नये जंगल लगाने और वन्य जीवों को बसाने, फॉरेस्ट इकोसिस्टम को सुधारने के अलावा वन संरक्षण ढांचा बनाने के लिए होगा. भारत सरकार ने देश के जंगलों को मौजूदा 21 प्रतिशत से बढ़ाकर कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत करने का फैसला लिया है. कैम्पा के 420 अरब रुपये के कोष पर ग्राम सभाओं और स्थानीय प्रतिनिधियों का कोई सीधा अधिकार नहीं होने से नौकरशाही और वन विभाग द्वारा धन का दुरूपयोग होने की आशंका जतायी जा रही है.

जड़ से दूर होने का दर्द

जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है. आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है. विस्थापन और पलायन ने आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार को बहुत हद तक प्रभावित किया है. गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चलते आज का विस्थापित आदिवासी समाज, खासतौर पर उसकी नई पीढ़ी, अपनी संस्कृति से लगातार दूर होती जा रही है.

Ureinwohner Adivasi Minderheit in Indien
तस्वीर: dpa - Bildarchiv

आधुनिक शहरी संस्कृति के संपर्क ने आदिवासी युवाओं को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही पूरी तरह मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं. समाजशास्त्री डॉ साहिब लाल कहते हैं कि जंगल को अपना घर समझने वाले जनजातियों के विस्थापन के दर्द को किसी मुआवजे से दूर नहीं किया जा सकता. उनके अनुसार आदिवासी, अपने जीवन, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. जंगलों से दूर होते ही विस्थापित आदिवासी समुदाय कई अन्य समस्याओं की गिरफ्त में आ जाता है.

छत्तीसगढ़ के आदिवासी विभाग के मंत्री केदार कश्यप का कहना है कि अपनी संस्कृति को बचाने के लिए आदिवासी समाज को एक साथ पहल करनी होगी. न्यूजीलैंड की माओरी जनजाति की मिसाल देते हुए वे कहते हैं कि अपनी संस्कृति से दूर होने के कारण माओरी जनजाति आज न्यूजीलैंड में केवल कथा और कथानक के रूप में जीवित रह गई है. ऐसा भारत में न हो, इसके लिए मिलकर प्रयास करना होगा.