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चुनाव से पहले पाबंदियों में जकड़ा ईरान

५ जून २०१३

इस्लामी ईरान में वर्जित विषयों की फेहरिश्त बड़ी लंबी है. बहुत से लेखकों ने खुद पर ही पाबंदियां लगा रखी हैं लेकिन इस्लामिक गणतंत्र के अधिकारियों के लिए अकसर यह भी काफी नहीं होता.

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तस्वीर: digarban.com/node/7018

जनवरी 2013 में ईरानी अधिकारियों ने चार अखबारों और एक साप्ताहिक पत्रिका के दफ्तर की तलाशी ली. इस दौरान 15 पत्रकारों को विदेशी मीडिया से संपर्क रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. बाद के दिनों में खुफिया और सुरक्षा मामलों के मंत्रालय के साथ ही दूसरे विभागों ने भी प्रेस में बयान जारी कर इसे विदेशी साजिश बताया. ईरान की सरकारी मीडिया में इन दिनों इस तरह की हरकतें बहुत आम हो गई हैं. 

सरकार विरोधी नेटवर्क

मार्च में खुफिया मामलों के मंत्री हैदर मोसलेही ने एलान किया कि 600 पत्रकार ऐसे हैं जो देश विरोधी नेटवर्क से जुड़े हुए हैं. उन्होंने कहा कि इनमें से 150 ईरान में सक्रिय हैं जबकि बाकी लोग विदेशों में रह कर काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि पत्रकारों की गिरफ्तारी, "चुनाव से पहले देशद्रोह को उभरने से रोकने" की कोशिश है. इसके कुछ ही दिनों बाद मंत्रालय ने एलान किया कि उसने डॉयचे वेले और फ्रांस के आरएफआई समेत कुछ समाचार संगठनों की पहचान कर ली है जो ब्रिटिश खुफिया एजेंसी के संपर्क में हैं.

मंत्रालय ने रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के साथ ही मानवाधिकार के बारे में संयुक्त राष्ट्र के लिए विशेष रिपोर्ट तैयार करने वालों पर भी अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क से जुड़ा होने का आरोप लगाया. उनका कहना है कि यह इस्लाम और "इस्लामिक रिपब्लिक के पवित्र तंत्र" के खिलाफ साजिश है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स से जुड़े रजा मोइनी का कहना है, "एक देश यह आरोप नहीं लगा सकता कि पूरी दुनिया किसी खुफिया एजेंसी के हाथ का खिलौना है."

अधिकारी मीडिया संस्थानों और सांस्कृतिक संगठनों पर पाबंदियों को उचित ठहराने में साजिश की कहानियों का इस्तेमाल कर रहे हैं और सिर्फ इतना ही नहीं प्रकाशन संस्थानों को भी निशाना बनाया जा रहा है. 

सेंसर का उल्लंघन

यहां छपने वाली हर किताब को संस्कृति और इस्लामिक संचालन मंत्रालय यानि इरशाद मंत्रालय से मंजूरी लेनी पड़ती है. किताब छपने के लिए मंजूरी का सालों तक इंतजार करना यहां कोई हैरानी की बात नहीं. पिछले साल की बात है 1979 में ईरानी क्रांति के बाद अंतरिम सरकार में कुछ महीनों के लिए विदेश मंत्री रहे इब्राहिम याजदी ने मंजूरी न मिलने के बाद दो किताबों के ऑनलाइन प्रकाशन का फैसला किया. इनमें से एक किताब मेहदी बाजारगन के बारे में थी जो क्रांति के बाद देश के प्रधानमंत्री बने थे. दूसरी किताब 1940 और 50 के दशक में छात्रों की क्रांति के बारे में थी.

ऐसा नहीं कि केवल राजनीतिक विषयों वाली किताबों पर ही पाबंदी लगती हो. विख्यात प्रकाशन एजेंसी शाबाविज की निदेशक फरीदेह खालातबारी बताती हैं कि बच्चों की किताबें भी इन पाबंदियों का निशाना बनती हैं. यह संस्थान कई पुरस्कार जीत चुका है. खालातबारी ने ईरानी समाचार एजेंसी इलना को बताया, "परियों पर लिखी चार भागों वाली एक किताब के दो भाग छपने के बाद बाकी के लिए मंजूरी नहीं मिली क्योंकि किताब में परियों का वर्णन ठीक से नहीं किया गया था." खालतबारी सवाल उठाती हैं कि किसने परियों को देखा है जो यह बता सके कि उनका वर्णन ठीक से किया गया है या नहीं.

ईरान सरकार की ओर से 2006 में पुरस्कार जीत चुके अहमद बिगदेली बताते हैं कि उनके एक जासूसी उपन्यास को इरशाद मंत्रालय से मंजूरी मिलने में चार साल लगे. मंत्रालय को किताब में पुलिस वाले को हाथ में डंडा लिए बताए जाने पर आपत्ति थी. उनका कहना है कि ऐसे रवैये के लिए कुछ नहीं किया जा सकता. वो बताते हैं कि सरकार ने इतनी सख्ती कर दी है कि जो लोग खुद पर पाबंदी लगा लेते थे वो भी परेशान हो गए हैं.

महिलाओं से जुड़े मुद्दे पर किताब छापने वाले प्रकाशन संस्थान रोशनगारन की शाहला लहिदजी कहती हैं कि पढ़ने वालों को कोई भय नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें होना चाहिए जो पढ़ते नहीं, "सांस्कृतिक चीजों का बनना इस बात का सबूत है कि समाज का दिमाग सक्रिय है और उसे मौत से दूर ले जा रही है."

रिपोर्टः फरनाज सैफी/एनआर

संपादनः महेश झा

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