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चीन में क्या उम्मीद लेकर पहुंचे हैं नरेंद्र मोदी?

निखिल रंजन
२७ अप्रैल २०१८

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चीन दौरे की तैयारी भले ही जनवरी से चल रही थी लेकिन तारीखों के एलान से विशेषज्ञ भी थोड़े हैरान हैं.

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Indischer Premier Modi in China
तस्वीर: Reuters/China Daily

हैरानी के पीछे वजहें भी साफ हैं. बीते महीनों में दोनों देश एक दूसरे के साथ जिस तरह पेश आए हैं उनमें चटपट मुलाकात की गुंजाइश कम आशंकाएं ज्यादा दिख रही थीं. बहरहाल अब जब मुलाकात शुरू होने में कुछ ही वक्त बचा है तो यह सवाल उठ रहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री क्या उम्मीदें लेकर चीन आए हैं.

भारत चीन संबंधों के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि दोनों नेताओं के मन क्या है यह तो वही जानें, लेकिन लोगों के मन में ज्यादा उम्मीदें ना पैदा हों इसलिए मुलाकात को अनौपचारिक रखा गया है.  जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर स्वर्ण सिंह ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी हुबेई प्रांत के वुहान में मिल रहे हैं. राजधानी से दूर यह मुलाकात अकेले में होने की संभावना है, जिसमें कोई प्रतिनिधिमंडल नहीं होगा और इसमें अहम भूमिका अनुवादकों की होगी." 

Indischer Premier Modi in China
तस्वीर: Getty Images/AFP

बातचीत का कोई तय एजेंडा नहीं है और ऐसे में दोनों नेता आपसी मुद्दों से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों तक पर आपसी समझ को बेहतर करने का प्रयास करेंगे, ऐसा भारत के सत्तापक्ष की ओर से कहा जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी में विदेश मामलों की कमेटी के प्रमुख विजय चौथाईवाले ने डीडब्ल्यू से कहा, "भारत और चीन का संबंध प्रतिद्वंद्विता और सहयोग पर आधारित है. मौजूदा वक्त में दोनों देशों को सहयोग बढ़ाने की जरूरत है. दोनों नेता सिर्फ आपसी संबंधों ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी सहयोग बढ़ाने के लिए बात करेंगे और वो भी अनौपचारिक वातावरण में." 

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के चीन में रहते प्रधानमंत्री के दौरे का एलान हुआ और भारतीय रक्षा मंत्री भी इस वक्त चीन में ही हैं. जाहिर है कि बातचीत अनौपचारिक भले ही है लेकिन मुद्दे अनौपचारिक नहीं होंगे.

भारत को न्यूक्लियर ग्रुप की सदस्यता से लेकर मसूद अजहर के प्रतिबंध और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर चीन के सहयोग की जरूरत है. दूसरी तरफ चीन को 'वन बेल्ट वन रोड' परियोजना को दक्षिण एशिया में सफल बनाने के लिए भारत का साथ चाहिए. ये ऐसे मुद्दे है जिन पर दोनों देश कई बार ना कह चुके हैं तो फिर ऐसे में सहयोग बढ़ने की बात कैसे होगी?

प्रोफेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं, "चीन ने ऐसे संकेत दिए हैं कि वह आतंकवाद के मुद्दे पर भारत की चिंताओं को दूर कर सकता है. इसमें अच्छे और बुरे आतंकवाद के बीच अंतर को खत्म करना और कुछ दूसरे उपाय भी शामिल हैं. चीन खुद भी आतंकवाद की समस्या से जूझ रहा है. इतना ही नहीं चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का नाम भी बदलने की तैयारी हो रही है ताकि भारत इससे जुड़ सके."

Indischer Premier Modi in China
तस्वीर: Reuters/China Daily

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और चीन दोनों अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए कोशिश कर रहे हैं और अमेरिकी को ध्यान में रखते हुए कैसे इस मामले में एक दूसरे का सहयोग किया जाए, दोनों नेताओं की बातचीत में यह मुद्दा भी उठने की उम्मीद है. प्रोफेसर सिंह ने यह भी कहा, "चीन ग्लोबलाइजेशन और मुक्त व्यापार के सबसे बड़े प्रवक्ता के रूप में पहले ही उभर चुका है और उसकी पूरी कोशिश होगी कि भारत इस मामले में उसके साथ आए और उसकी नीतियों का समर्थन करे."

इसके साथ ही छोटी मोटी रियायतों का भी पासा फेंका जा रहा है. प्रधानमंत्री के चीन दौरे से ठीक पहले चीन ने सिक्किम के रास्ते मानसरोवर की यात्रा की अनुमति देने का एलान किया. डोकलाम विवाद के बाद 10 महीने से यह रास्ता बंद पड़ा है. सीमा विवाद पर बातचीत के लिए भी चीन ने एक वरिष्ठ अधिकारी की नियुक्ति की है और इसे भी एक बड़ा कदम बताया जा रहा है.

पर इन सब से अलग अहम मुद्दा यह है कि चीन इस वक्त भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है. दोनों के बीच 84 अरब डॉलर का सालाना कारोबार हो रहा है और इसमें चीन के निर्यात की हिस्सेदारी करीब 68 अरब डॉलर से ज्यादा है. जिस वक्त डोकलाम में दोनों देशों की सेना एक दूसरे से कुछ ही दूर पर संगीन ताने खड़ी थीं, तब भी कारोबार अपनी रफ्तार से आगे बढ़ता रहा. साफ है कि दोनों देश कूटनीतिक और अंतरराष्ट्रीय मामलों की तनातनी को कारोबार तक नहीं पहुंचने दे रहे.

नोटबंदी और जीएसटी समेत भारत सरकार के तमाम उपायों ने देश के आर्थिक विकास को आंकड़ों में तो बनाए रखा है लेकिन रोजगार और दूसरे कई मानकों पर देश खस्ता हाल है. चीन के साथ सहयोग बढ़ा तो अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार की उम्मीद भी जग सकती है. इसके अलावा चीन भारत में निवेश की कई परियोजनाओं में दिलचस्पी दिखा चुका है मुमकिन है कि इनमें से कुछ को हरी झंडी दिखाने के लिए सहमति बन जाए.

दुनिया की दो सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के लिए दुनिया के साथ आपसी सहयोग को बढ़ाना जरूरी है और एक सच यह भी है कि इस सहयोग की बिसात पर ही सरकारों की सफलताओं की भी कहानी लिखी जाएगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले साल अपने लिए एक और कार्यकाल मांगने देश की जनता के सामने होंगे और इसके लिए उनके पिटारे में कुछ भरना जरूरी है.

दूसरी तरफ लंबे समय के लिए चीन की सत्ता पर काबिज रहने की तैयारी कर चुके शी जिनपिंग भी चीनी लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए दक्षिण एशिया में अपना परचम बुलंद रखना चाहते हैं.

दोनों नेताओं की आकांक्षाओं को पूरा करने का रास्ता वुहान से निकालने की कोशिश होगी और अगर कुछ ना हो सका तो भी कोई चिंता नहीं क्योंकि मुलाकात "अनौपचारिक” है.