गोलियां, तस्वीरें और सनसनी
२५ जुलाई २०१६म्यूनिख के एक शॉपिंग मॉल में हमला हुआ था. सुरक्षाकर्मियों की कार्रवाई चल ही रही थी और पुलिस विभाग के प्रेस दफ्तर को ट्विटर पर फौरी अपील करने पर मजबूर होना पड़ा कि पुलिसकर्मियों की तस्वीरें और वीडियो ऑनलाइन पोस्ट न करें, अपराधियों की मदद न करें. यह अपील किसी खास व्यक्ति से नहीं बल्कि सब से की गई थी, आम नागरिक और मीडिया के प्रतिनिधि दोनों ही.
कुछ लोगों ने इस अपील पर कोई ध्यान नहीं दिया. कुछ ही समय बाद पुलिस ने फिर से यही अपील की. लेकिन खुद को पत्रकार समझने वाले नागरिक इस शाम कुछ पेशेवर पत्रकारों की ही तरह रिपोर्टिंग के आधारभूत सिद्धांतों का पालन करने अक्षम तो थे ही, तैयार भी नहीं थे. मॉनीटर पर घटनास्थल की तस्वीरें असली समय में दिखती रहीं.
पहली तस्वीर का गेम
पेशेवर पत्रकार और कुशल आधुनिक मीडिया तकनीक स्मार्टफोन से लैस नागरिक लंबे समय से एक प्रतिस्पर्धा में हैं. घटनास्थल से सबसे जल्दी तस्वीरें कौन भेज सकता है. जनमत की सूचना की जरूरत और उत्सुकता की प्यास सबसे जल्दी कौन बुझा सकता है? यह एक ऐसी प्रतिस्पर्धा है जिसमें स्थापित समाचार माध्यम हाथ खींच लेते हैं.कहीं भी कोई घटना घटे, वहां संयोग से उपस्थित कोई व्यक्ति तस्वीर खींचता है और उसे नेट पर अपलोड कर देता है. जब तक पहले पत्रकार घटनास्थल पर पहुंचे, बहुत सारी तस्वीरें और वीडियो इंटरनेट पर उपलब्ध होती हैं.
मीडिया पर दबाव होता है. उनसे ऐसी उम्मीद की जाती है जो वे जिम्मेदारी के साथ शायद ही पूरा कर सकते हैं. जर्मनी के राष्ट्रीय रेडियो चैनल के समाचार प्रमुख मार्को बैर्तोलासो कहते हैं, "हमें रिपोर्टिंग में जल्द होना चाहिए, लेकिन शांत दिमाग से. समाचार देने वाले पत्रकार को मीडिया संसार के दबाव का प्रतिरोध करने की हालत में होना चाहिए."
शो करने की मजबूरी
लेकिन इस प्रतिरोध की भी सीमा होती है. स्थापित समाचार माध्यमों से उम्मीद की जाती है कि वे घटनाओं के बारे में जल्द से जल्द सूचना देंगे. उस हालत में भी जब तस्वीरों और अफवाहों के अलावा स्थिति के बारे में कोई जानकारी न हो. म्यूनिख में घंटों तक यही हालत थी. कुछ भी स्पष्ट नहीं था. न अपराधियों की संख्या और न ही उनके इरादे. समस्या यह है कि रिपोर्ट फिर भी करनी होगी. फ्रैंकफुर्टर अलगेमाइने साइटुंग के मीडिया विशेषज्ञ मिषाएल हानफेल्ड का कहना है कि म्यूनिख की घटना ने इस दुविधा को एकदम साफ कर दिया है. "सामयिक रिपोर्टिंग करने वाले चैनल पर जल्द सूचना की प्रतियोगिता होती है. यह सिर्फ आंशिक हो सकती है."
एक बार जब शो शुरू हो जाता है तो आपको रिपोर्ट करनी होती है, भले ही आपके पास कोई महत्वपूर्ण सूचना न हो. पत्रकार ऐसी हालत में पहुंच जाते हैं जहां वे सूचना इकट्ठा करने की अपनी जिम्मेदारी पूरा करने की हालत में नहीं होते. मिषाएल हानफेल्ड कहते हैं, "उनके पास अटकलें लगाने के अलावा कोई चारा नहीं होता." ऐसी हालत में वे अविश्वसनीय काम करने को मजबूर होते हैं. जब कुछ नया नहीं होता तो क्या होता जब कि, ऐसी तर्ज पर रिपोर्टिंग करने लगते हैं. उनका मकसद एक ही होता है कि शो चल रहा है और उसके समय को भरना है. रिपोर्ट नहीं करने का विकल्प उनके सामने होता ही नहीं. प्रतिस्पर्धा बहुत बड़ी है. जो इस बार मौके पर नहीं है, उसके अगली बार होने का कोई भरोसा नहीं करेगा.
सूचना और अटकलें
सूचना पर एक दूसरी ओर से भी दबाव है. सनसनी और विकृत मनोरंजन की चाह की ओर से. गंभीर और सनसनीखेज रिपोर्टिंग की सीमाएं धुंधली होती जा रही है. लोगों का एक हिस्सा वस्तुपरक और संयमित रिपोर्टिंग को, तस्वीरों के किफायती इस्तेमाल को और जरूरत पड़ने पर कम लेकिन विश्वसनीय सूचना देने की नीति को पर्याप्त नहीं मानता. मार्को बार्तोलासो कहते हैं कि सूचना का कारोबार आर्थिक और समय के दबाव में आ रहा है, "लगभग सभी समाचार माध्यम कुछ बड़े विषयों को ले रहे हैं, और इसलिए कि दूसरे भी ऐसा कर रहे हैं. यही चक्र लगातार चल रहा है."
इस दबाव में अचंभित करने वाली तस्वीरों को केंद्र में लाने का लालच बड़ा होता है. तस्वीरें जो अपराधी को दिखाए, तस्वीरें जो पीड़ितों को दिखाए. अबाध हिंसा और उसकी वजह से होने वाली तकलीफ को दिखाकर टीआरपी और सर्कुलेशन हासिल की जा सकती है. एक बुलेवार दैनिक ने सचमुच म्यूनिख के हमलावर की तस्वीर अपने होमपेज पर डाली. कुछ रिपोर्टर हमले में मारे गए लोगों के शोक में डूबे और रोते परिजनों की तस्वीर लेने को टूट पड़ रहे थे. पीड़ितों की तस्वीर पोस्ट करने वालों के लिए पुलिस को यह भी ट्वीट करना पड़ा, "बाज आओ. परिवार वालों की तकलीफ के लिए सम्मान दिखाओ."
घटना की बर्बरता रिपोर्टिंग की बर्बरता का कारण बनती है. म्यूनिख की घटना ने एक बार फिर दिखाया कि तस्वीरें सबकुछ हैं , लेकिन मासूम नहीं हैं.