गरीबी को परिभाषित करने में नाकाम टास्कफोर्स
१२ सितम्बर २०१६गरीबी उन्मूलन पर बनी एक टास्क फोर्स देश में गरीबी को परिभाषित करने में नाकाम रही है. नीति आयोग के एक टास्क फोर्स ने डेढ़ साल तक माथा-पच्ची के बाद गरीबी रेखा तय करने से इनकार कर दिया. फरवरी 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई नीति आयोग की संचालन परिषद की पहली बैठक में इस टास्क फ़ोर्स को गठित करने का फैसला किया गया था.
क्या कहना है टास्क फोर्स का
नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता वाले इस टास्क फ़ोर्स ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंप दी है. टास्क फ़ोर्स ने गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले बीपीएल लोगों की पहचान के लिए एक नयी समिति बनाने का सुझाव दिया है. सरकार को सुझाव देते हुए कहा गया है कि वह इस काम के लिए विशेषज्ञों की अलग समिति बनाए.
इस टास्क फोर्स में अरविंद पनगढ़िया के अलावा नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय व ग्रामीण विकास तथा आवास व शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के सचिव भी शामिल थे. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार टास्क फ़ोर्स ने बीपीएल जनसंख्या को परिभाषित करने के लिए राज्यों से भागीदारी का भी सुझाव दिया है.
4 विकल्पों पर फोकस
गरीबी कि परिभाषा को समझाने या बीपीएल की पहचान के लिए टास्क फोर्स ने 4 विकल्पों पर फोकस करने के लिए कहा है. पहला, तेंदुलकर गरीबी रेखा को जारी रखा जाए जबकि दूसरे विकल्प के रूप में रंगराजन या अन्य ऊंची ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा को की सिफारिशें मानकर गरीबी के मानक को बढ़ाने की बात कही गयी है.
टास्क फोर्स ने आबादी के निचले 30 फीसदी में हुई प्रगति का पता लगाने और चौथे विकल्प के रूप में गरीबी के विशेष हिस्सों जैसे पोषण, आवास, पीने का पानी, सफाई, बिजली और संपर्क की प्रगति को वैज्ञानिक तरीके से मापने का सुझाव दिया है. टास्क फोर्स ने सिफारिश की है कि गरीबी उन्मूलन के सीधे उपायों पर जोर देने की जरूरत है.
परिभाषा तय करने की कवायद
गरीबी हटाने के 60 के दशक से शुरू हुए अभियान को अब तक कोई खास सफलता नहीं मिली है. लेकिन गरीब और गरीबी की परिभाषा बदलती रही है. सरकारें पिछले 54 सालों से गरीबी की एक सर्वमान्य परिभाषा की तलाश कर रही हैं.
गरीबी की परिभाषा तय करने का सफर 1962 में शुरू हुआ. तब एक वर्किंग ग्रुप का गठन किया गया था जिसने 4 वयस्क समेत परिवार के 5 सदस्यों का कम से कम खर्च गांवों में 100 और शहरों में 125 रुपए महीना होना बताया था. बाद के वर्षों में 1979 की टास्क फोर्स, 1993 की विशेषज्ञ समिति और इसके बाद दो अन्य आर्थिक जानकारों ने गरीबों की संख्या निकाली.
गरीबी के तेंदुलकर और रंगराजन फॉर्मूले
सुरेश तेंडुलकर की अगुआई वाली टास्क फोर्स ने 2005 में कोई नई गरीबी रेखा नहीं बनायी. प्रोफेसर लकड़वाला की अध्यक्षता में 1993 में बने एक्सपर्ट ग्रुप द्वारा की गई सिफारिश के आधार पर 2004-05 में तैयार गरीबी रेखा को ही मूल्यों पर आधारित कर बदलाव कर दिया. इसके अनुसार शहरों में 33 रुपए और गांवों में प्रतिदिन 27 रुपए खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना गया.
तेंदुलकर समिति की सिफारिशों और आंकड़े जुटाने के तरीकों की व्यापक आलोचना के बाद 2012 में प्रधानमंत्री की आर्थिक मामलों की सलाहकार समिति के तत्कालीन अध्यक्ष सी रंगराजन की अगुवाई में एक समिति गठित की गई थी. रंगराजन समिति ने एक दिन में गांवों में 32 रुपए और शहरों में 47 रुपए खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना. तेंदुलकर फॉर्मूले के मुताबिक भारत में गरीबों की संख्या 27 करोड़ थी जबकि रंगराजन फॉर्मूले से गरीबों की संख्या 36 करोड़ हो गयी.
गरीबी पर सरकारों के आंसू
आजादी के बाद से बनी लगभग हर सरकार ने गरीबी को लेकर आंसू तो अधिक बहाए पर इसे दूर करने में उतनी कारगर साबित नहीं हुई हैं. रंगराजन समिति के अनुसार, देश में हर 10 में से 3 व्यक्ति गरीब था. तत्कालीन संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला के अनुसार तब देश में गरीबों की संख्या वर्ष 2004-05 के 40.74 करोड़ लोगों से घटकर 2011-12 में 27 करोड़ रह गयी थी.
वहीँ पिछली यूपीए सरकार में मंत्री रहे आनंद शर्मा के अनुसार यूपीए शासनकाल में 14 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया गया था. वर्तमान सरकार के प्रयासों का असर अगले कुछ सालों में दिखायी देगा. ज़्यादातर जानकार मानते हैं कि भारत ने तेजी से आर्थिक विकास किया है और गरीबी पर भी काफी हद नियंत्रण पाया है, लेकिन आर्थिक विषमताओं से निपट पाने में सरकार असफल रही है. आर्थिक विकास के फायदे से देश के अधिकतर जनजातीय, दलित और मजदूर वर्ग दूर हैं. इसी वर्ग के लोग देश के सबसे गरीब लोगों में शुमार किये जाते हैं.