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फिर ठनी केजरीवाल और बीजेपी में

१६ जून २०१६

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को विवादों से मुक्ति नहीं मिल पा रही है. लेकिन ताजा मामला राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता में आने के बाद अपने नेताओं को संतुष्ट करने के लिए सरकारी तंत्र का फायदा उठाने का है.

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Indien Anhänger der AAP-Partei
तस्वीर: picture-alliance/Zuma Press/A. Shivaani

ताजा विवाद आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने को लेकर है. हालांकि इस विवाद में आप के 21 विधायकों की सदस्यता पर संकट जरूर गहरा गया है लेकिन लाभ के पद को लेकर उठे इस विवाद की तपिश में भाजपा और कांग्रेस के शासन काल में तैनात संसदीय सचिव भी आ गए हैं.

क्या है मामला

दिल्ली विधानसभा की 70 में 67 सीटें जीत कर प्रचंड बहुमत से 24 फरवरी 2015 को सत्ता में आने के बाद केजरीवाल ने मार्च 2015 में अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया था. हालांकि संसदीय सचिव बनाए जाने का यह पहला मौका नहीं था, परेशानी सिर्फ पद के नाम के साथ जुड़ी एक तकनीकी बाधा मात्र है. देश और दिल्ली में पहली बार केजरीवाल ने मंत्रियों के संसदीय सचिव नियुक्त कर दिए. और ऐसा करने से पहले कानून में आवश्यक संशोधन नहीं किया.

केजरीवाल सरकार ने दिल्ली विधानसभा सदस्यता अयोग्यता निवारण संशोधन अधिनियम 2015 बाद में विधानसभा से पारित कर इसमें संशोधन को भूतलक्षी प्रभाव से लागू करने का प्रावधान किया. जिसे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मंजूरी देने से हाल ही में इंकार कर दिया. मौजूदा विवाद यहीं से शुरू हुआ जिसमें केजरीवाल पर विपक्ष ने आरोप लगाया है कि विधायकों को सत्ता सुख मुहैया कराने की जल्दी में उन्होंने कानूनी प्रक्रिया का पालन करना भी मुनासिब नहीं समझा.

Indien Arvind Kejriwal Narendra Modi Treffen
तस्वीर: picture-alliance/dpa

विवाद का कानूनी पहलू

केजरीवाल सरकार द्वारा संसदीय सचिवों की नियुक्ति में कानून में संशोधन करने की औपचारिकता पूरा नहीं करना एक मात्र भूल नहीं थी बल्कि इन्हें लाभ के पद के दायरे से बाहर लाने की औपचारिकता पूरा करना भी सरकार की जिम्मेदारी है. इस प्रक्रियागत कमी को ही भाजपा के एक कार्यकर्ता प्रशांत पटेल ने चुनाव आयोग में उठाया है.

पटेल के साथ कांग्रेस नेता अजय माकन ने भी इस मामले में सहयाचिकाकर्ता बन कर आयोग से आप के 21 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग की है. इनकी दलील है कि दिल्ली में मंत्रियों के संसदीय सचिव का पद कानून में वर्णित नहीं होने के कारण वजूद में ही नहीं है. साथ ही इनके पद को लाभ के पद से बाहर नहीं रखा जा सकता है इसलिए इनकी विधानसभा सदस्यता रद्द की जाए.

तथ्य क्या कहते हैं

दिल्ली में संसदीय सचिव का इतिहास पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश के समय से जुड़ा है. उन्होंने 1950 के दशक कांग्रेस नेता एचकेएल भगत को अपना संसदीय सचिव बनाया था. इसके बाद 1993 में दिल्ली की विधानसभा के पुनर्जीवित होने पर 1996 में तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ने भाजपा विधायक नंदकिशोर गर्ग को पहला संसदीय सचिव बनाया. इसके बाद 1999 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अजय माकन को संसदीय सचिव बनाया. वह दो साल तक इस पद पर रहे और सरकारी दफ्तर एवं गाड़ी का भी इस्तेमाल करते रहे.

मजेदार तथ्य यह है दिल्ली विधानसभा सदस्यता अयोग्यता निवारण कानून में पहली बार संशोधन साल 2006 में करते हुए मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव को लाभ के पद के दायरे से बाहर किया गया था. ऐसे में गर्ग और माकन दोनों की नियुक्ति को भी अब कानून के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. हालांकि गर्ग ने दलील दी है कि उन्होंने यह भूल समझ में आते ही संसदीय सचिव पद से इस्तीफा दे दिया था.

कानून में संसदीय सचिव

दिल्ली सरकार ने लाभ के पद का प्रावधान 1997 में कानून में पहला संशोधन कर किया. इसमें दो पद जोड़ते हुए खादी ग्रामोद्योग बोर्ड और दिल्ली महिला आयोग के अध्यक्ष को लाभ के पद से बाहर किया गया. दूसरा संशोधन साल 2006 में कर पहली बार मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव सहित दस अन्य पदों को लाभ के पद के दायरे से बाहर किया गया. इसके बाद साल 2015 में केजरीवाल सरकार ने संशोधन प्रस्ताव के मार्फत मुख्यमंत्री और मंत्रियों के संसदीय सचिव शब्द जोड़ने की कोशिश की थी जिसे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अस्वीकार कर दिया.

कुल मिलाकर यह विवाद सिर्फ आप के 21 विधायकों की सदस्यता पर मंडराते खतरे से नहीं जुड़ा है. बल्कि केजरीवाल सरकार के संशोधन प्रस्ताव में भूतलक्षी प्रभाव की तर्ज पर इस मामले की आंच भी भूतलक्षी प्रभाव से मुक्त नहीं है. केजरीवाल के ताजा तेवर से भी साफ है कि इस लड़ाई को वह सिर्फ अपने 21 विधायकों की सदस्यता की कुर्बानी तक सीमित नहीं रहने देंगे.

ब्लॉग: निर्मल यादव