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समाज

निजता और पसंद का मौलिक अधिकार

शिवप्रसाद जोशी
५ फ़रवरी २०१८

सुप्रीम कोर्ट ने खाप पंचायतों के एक मामले में फैसला दिया है कि वयस्कों की शादी के बीच किसी तीसरे का कोई काम नहीं. लेकिन कोर्ट के आदेशों के समांतर, भारत में विवाह और प्रेम को लेकर वास्तविक स्थिति चिंताजनक है.

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तस्वीर: Aletta Andre

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दो वयस्कों की शादी को लेकर खाप पंचायत हो या कोई समाज या कोई व्यक्ति सवाल नहीं उठा सकता. खाप से कहा गया है कि वो नैतिकता का रखवाला न बने. खाप पंचायत को अदालत पहले ही गैरकानूनी घोषित कर चुकी है. ताजा फैसले की रोशनी में उम्मीद करनी चाहिए कि ये जातीय श्रेष्ठता की ग्रंथि टूटेगी और उसकी निरंकुशता भी थमेगी जो इधर हिंदी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई इलाकों में सक्रिय रही है. यहां अंतरजातीय विवाह करने वाले प्रेमी युगल को निशाना बनाया जाता है, उन पर क्रूरताएं की जाती हैं और पीट पीट कर मार डालने की वारदात भी हुई हैं, या फिर उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया गया है. केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों में खाप पंचायते न हों लेकिन वहां भी ऑनर किलिंग के मामले सामने आते रहे हैं. इस बर्बरता में ऑनर शब्द जोड़ना भी घृणित लगता है.

हैरानी और दुख की बात है कि 21वीं सदी के डेढ़ दशक बीत जाने के बाद, और विश्व शक्ति बनने को अग्रसर देश में सर्वोच्च न्यायालय इस तरह के आदेश देने को विवश है. दावोस में प्रधानमंत्री जब कारोबारियों को आमंत्रित करने के लिए लुभावने शब्दों का इस्तेमाल करते हैं तो ये सवाल भी उठता है कि उदार मूल्यों की बहुलतावादी परंपरा वाले देश में ये कैसा वक्त है जिसका कोई संबंध कथित उत्प्रेरक या आकर्षक नारों से नहीं हैं. हमें अपनी आज की वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए. पहला काम तो यही है. इसके बाद इस वास्तविकता से निपटने के लिए अपनी तैयारी करनी चाहिए. वास्तविकता ये है कि आज हम सड़कों पर खून बहा देने में न हिचकने वाला बर्बर समाज बन गए हैं. हिंदू लड़के को मुस्लिम बेटी का पिता सरे राह चाकू से मार डालता है, मुस्लिम लड़के को हिंदू लड़की के घरवाले बेरहमी से कत्ल कर देते हैं और मूंछे मरोड़ते हैं, दलित युवक को दिनदहाड़े कुचलकर सवर्ण लड़की के परिजन फरार हो जाते हैं, खौफ का मंजर पसरा हुआ है. लड़का और लड़की साथ दिखे नहीं कि फब्ती या नैतिक ठेकेदारी शुरू और लाठी डंडा चाकू तेजाब से हमला.

उत्तर प्रदेश में तो बाकायदा एंटी रोमियो स्क्वाड बना दिया राज्य सरकार ने. कानूनन पीटिए सलाखों के पीछे भेजिए, डराइये धमकाइये. लगातार नजर रखिए. लव जेहाद का हिंदूवादी दुष्प्रचार तो और भयानक और कुत्सित ढंग से एक अभियान ही छेड़ चुका है, बाकायदा सोशल मीडिया से ढूंढ ढूंढकर प्रोफाइल निकाले जाने की खबरें मिल रही हैं. खाप की हिंसा से बहुत आगे की और रोजाना की हिंसा में हमारा समाज फिसल चुका है. और ऐसे में ये भी लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहीं देर से तो नहीं आ रहा है. इन रूढिगत हिंसाओं को पोषण देने वाली ताकतें समाज में खुलेआम घूमती रही हैं, खाप का हुक्का पानी बदस्तूर जारी और लबालब है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश अगर पहले आ गया होता तो हो सकता है कि कुछ मासूम जानें बच जातीं, डर के कुछ साए मिट जाते, कुछ जिंदगियां खुशहाल जीवन में दाखिल हो पातीं. आखिर कोर्ट को ही बताना पड़ रहा है कि जीवनसाथी बन रहे दो व्यक्तियों के बीच किसी तीसरे का दखल नहीं हो सकता, एक समाज के रूप में हम इसे समझने में लगता है नाकाम हैं.

अब फिक्र इस बात की करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की फटकार और आदेश का शब्दशः पालन हो पाए. जातियों की बेड़ियां और प्यार पर पहरे टूटने ही चाहिए. वैसे पुलिस प्रशासन की लाचारी भी ऐसे मामलों में देखी जा चुकी है. परिवार, बिरादरी और जाति की इज्जत का ऐसा घेरा कस दिया गया है कि कानून या पुलिस की सख्ती का डर भी इन्हें नहीं रहा. जाहिर है कोई भी आदेश या कड़ा से कड़ा कानून नाकाम ही रहेगा अगर सामाजिक स्तर पर सोच ही न बदल पाए. जातियों की जकड़बंदी से घिरे समाज की सोयी हुई चेतना जागृत करने का काम समाज और परिवार के भीतर से ही सबसे पहले होगा. राजनीतिक स्तर पर इसे और बेहतर दिशा दी जा सकती है. नेता और राजनीतिक दल अपने स्वार्थों को अगर दूर कर दें और वोटों की राजनीति से बाज आएं तो जातीय गौरव की रक्षा के नकली अभियान भी कम होते जाएंगे.

कोर्ट तो आदेश ही कर सकता है अनुपालन तो एजेंसियों का काम है. लेकिन पिछले दिनों हमने देखा कि पद्मावत फिल्म पर कोर्ट के फैसले के बावजूद क्या हुआ. जब एक फिल्म को लेकर नाक की लड़ाई हिंसा में बदल सकती है तो विवाह जैसी एक निजी रस्म को लेकर लोगों से आधुनिक नजरिए की अपेक्षा कैसे करें. ये जकड़न भी धीरे धीरे ही छूटेगी बशर्ते इसे दूर करने की कोशिशों में जुटीं प्रगतिशील शक्तियां शिथिल न पड़ें. ये बात इन कट्टर समाजों को जान लेनी होगी कि विवाह सिर्फ उनकी सामाजिक या पारिवारिक रस्म नहीं है ये दो व्यक्तियों की निजता और पसंद का भी मौलिक अधिकार है. अपनी पसंद का विवाह दो युवाओं का मानवाधिकार है.