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खाड़ी देशों में मजदूरी का सच बताती मौत

३० अक्टूबर २०१७

दक्षिणी तेलंगाना के कालेडा गांव की एक अलसायी दुपहरी में लक्ष्मी माल्या अपने घर के बरामदे में बैठी है. अगले दिन यहीं पर उसके पति चित्तम का शव दुबई से ला कर रखा जाएगा. चित्तम दुबई में दिहाड़ी मजदूर था.

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Indien Laxmi Malaya in Kalleda
तस्वीर: Reuters/R. Srivastava

45 साल का चित्तम इस गांव का दूसरा मजदूर है जो सितंबर में दम तोड़ गया. 2014 से अब तक खाड़ी के देशों में काम करने गये 450 भारतीय मजदूर शव बन कर वतन लौटे हैं. कालेडा गांव के पूर्व प्रमुख अनकाथी गंगाधर बताते हैं, "पिछले साल भी तीन लोगों की मौत हुई थी. हमें बताया गया कि चित्तम स्ट्रोक से मर गया लेकिन वह स्वस्थ था और पिछले महीने ही घर से गया था." तेलंगाना राज्य के अधिकारी तनाव, और तेज गर्मी में काम करने को प्रवासी मजदूरों की मौत का सबसे आम कारण बताते हैं. हालांकि उनका कहना है कि खाड़ी के देशों में जाने वाले मजदूरों में मरने वालों की दर पिछले कई सालों से स्थिर है. गंगाधर ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा, "लोग इन मौतों के बारे में कुछ हफ्ते तक बात करते हैं लेकिन इसके आगे कुछ और नहीं होता. यहां नौकरी है नहीं इसलिए लोग जाना जारी रखते हैं."

कई दशकों से लोग तेलंगाना से बाहर जा रहे हैं. यह एक ग्रामीण परिवेश वाला राज्य है जिसकी राजधानी हैदराबाद है. लोग ज्यादातर मुंबई और खाड़ी के देशों में जाते हैं. इन लोगों के लिए यहां गुजारा मुश्किल है क्योंकि पानी की कमी के कारण खेती की हालत बहुत खराब है. हर साल करीब 10 हजार लोग तेलंगाना से खाड़ी के देशों में जाते हैं. केवल कालेडा गांव से ही औसतन 200 लोग हर साल जाते हैं. ये आंकड़े सरकारी हैं. ज्यादातर प्रवासी सोचते हैं कि वे दुबई में कुछ साल रह कर अच्छा पैसा बना लेंगे. उनके मन में यह सोच एजेंट भरते हैं. तेलंगाना राज्य के नेता सुरेश रेड्डी प्रवासियों के मुद्दों में दिलचस्पी रखते हैं उनका कहना है, "जब लोगों ने 1980 के दशक में यहां से खाड़ी देशों में जाना शुरू किया तो ये इलाका कई सालों के सूखे से जूझ रहा था. उन लोगों के पास बाहर जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था. जब वे यहां से गये तो उसके कुछ आर्थिक फायदे भी हुए लेकिन इसकी उन्होंने बड़ी कीमत चुकाई, वो लोग अमानवीय स्थितियों में काम करते थे और परिवार भी पीछे छूट गया."

Indien Laxmi Malaya in Kalleda
तस्वीर: Reuters/R. Srivastava

चित्तम की सालाना बचत 12 हजार रुपये से ज्यादा नहीं होती थी और वह कुछ कुछ महीनों पर 4-5 हजार रुपये घर भेजा करता था. उसने दुबई में 13 साल काम किया और इस पूरे समय के दौरान कुल पांच बार अपने बीवी बच्चों से मिलने आया. गंगाधर ने बताया, "वह अगले साल थोड़ा ज्यादा पैसा बचाकर यहां वापस आना चाहता था."

झूठे वादे

रामन्ना चितला ने दुबई में 16 साल तक काम किया और वह पिछले साल तेलंगाना के जगतियाल शहर में लौट आया. उसने तय किया कि वह दूसरे लोगों को एजेंटों के झांसे में आने से रोकेगा. चितला ने बताया, "मैंने वहां बड़ी दुर्गति देखी. मजदूरों को उचित मजदूरी नहीं मिलती और उनके साथ बुरा बर्ताव होता है. उनके एजेंट उन्हें धोखा देते हैं और झूठे वादे करते हैं तो मैंने सोचा कि मैं वापस लौट कर यहां बदलाव लाउंगा."

बीते सालों में भारत सरकार और गैर सरकारी संगठनों को प्रवासी मजदूरों से कई शिकायतें मिली हैं. इनमें मजदूरी का भुगतान ना करने से लेकर उत्पीड़न और गाली गलौज तक के मामले हैं.

मजदूर 50000 से 100000 रुपये का कर्ज लेकर एजेंटो को देते हैं. उन्हें लगता है कि सफाई मजदूर या निर्माण की जगहों पर मजदूरी करके वो इस कर्ज को चुका देंगे लेकिन उन्हें उतनी तनख्वाह नहीं मिलती जिसका वादा किया जाता है. चितला ने बताया, "वो बीमार होते हैं तो भी डॉक्टर के पास नहीं जाते ताकि पैसा बचा सकें." सेहत बिगड़ने की एक बड़ी वजह है कि उन्हें बेहद खराब स्थिति में काम करना होता है.

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि करीब 60 लाख भारतीय मजदूर खाड़ी के छह देशों में काम करते हैं. इनमें बहरीन, कुवैत, कतर, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान शामिल हैं. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2005 से 2015 के बीच 30 हजार भारतीय नागरिकों की मौत हुई. दिल्ली में संयुक्त अरब अमीरात की दूतावास ने ईमेल के जरिए दिये एक बयान में कहा कि वहां की सरकार ने बीते कुछ सालों में मजदूरों की स्थिति सुधारने के लिए कई ऊपाय किये हैं. इनमें मजदूरों के कांट्रैक्ट में पारदर्शिता लाने के साथ ही विदेशी मजदूरों की रक्षा के लिए भी तंत्र बनाया गया है. मजदूरों के लिए पांच भाषाओं में "अपने अधिकार जानो" अभियान चलाये गये हैं.

सरकारी एजेंट

सरकार के अधिकृत एजेंट के रूप में चितला का यह काम है कि प्रवासी अपनी नौकरी के कांट्रैक्ट को जाने, नौकरी देने वाली कंपनी बाद में नियमों को ना बदले और सारे कागजी काम सही और पूरे हों. हालांकि चितला के पास उतने मजदूर नहीं आते जितने कि अवैध एजेंटों के पास आते हैं. चितला ने कहा, "कम से कम यहां 50 गैर लाइसेंसी एजेंटे हैं जो सैकड़ो मजदूरों को भेज रहे हैं लेकिन मैंने अब तक सिर्फ 48 मजूदरों को ही भेजा है."

Indien Laxmi Malaya in Kalleda
तस्वीर: Reuters/R. Srivastava

भारत के विदेश मंत्रालय ने नियुक्ति की प्रक्रिया को चुस्त दुरूस्त बनाने और जरूरत पड़ने पर मजदूरों की मदद करने की कोशिश की है. रेडियो पर ऐसे जिंगल्स बजाये जाते हैं कि मजदूर सिर्फ अधिकृत एजेंटों के पास ही जाएं लेकिन फिर भी बहुत से मजदूर इन लोगों के चंगुल में फंस जाते हैं.

कालेडा को देख कर किसी समृद्ध गांव का भ्रम होता है क्योंकि यहां हरे भरे खेत हैं, जो सड़क के दोनों ओर दूर तक नजर आते हैं. ये और बात है कि इन खेतों से किसान अपने परिवार पालने लायक भी आमदनी नहीं जुटा पाते. जमीन अधिकार के लिए काम करने वाली वकील सुनील रेड्डी बताते हैं, "ये छोटे मोटे किसान हैं और महज 5 हेक्टेयर से भी कम ही जमीन इनके पास है. पानी यहां कम है और ऐसे में सिर्फ बारिश का ही सहारा है. जब तेलंगाना अलग राज्य बना था तो दो वादे किये गये थे, जमीन की ज्यादा सिंचाई होगी और ज्यादा नौकरियां होंगी, यहां स्थिति अब भी वैसी ही है."

अब विधवा हो चुकी लक्ष्मी माल्या के पास जमीन का बस एक छोटा सा टुकड़ा है जिस पर मक्का, हल्दी और चावल की फसल होती है. दो फसलों से करीब सालाना 60 हजार रुपये की आमदनी होती है, पति के भेजे पैसों के साथ मिला कर अब तक काम चल जाता था. प्रवासी मजदूरों के लिए काम करने वाले संगठन खाड़ी देशों में जाने वाले प्रवासियों के लिए मुआवजे की मांग कर रहे हैं. फिलहाल तो सरकार ने बस इतना किया है कि शव में तब्दील हो कर वापस आने वाले मजदूरों को हैदराबाद एयरपोर्ट से उनके गांव मुफ्त में पहुंचाया जाता है.

एनआर/एमजे (रॉयटर्स)