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क्यों स्कूली किताबों को बदलती है सरकार?

कुलदीप कुमार९ मई २०१६

इतिहास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़ी भारतीय जनता पार्टी का प्रिय विषय है क्योंकि उनकी हिंदुत्ववादी विचारधारा की नींव अतीत के गौरवगान और महिमामंडन पर टिकी है.

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Mädchenschule in Indien
तस्वीर: picture-alliance/ZB

इतिहास का इस्तेमाल करके ही वे उसे विदेशी मुसलमानों और देशी हिंदुओं के बीच अनवरत संघर्ष के रूप में चित्रित करते हैं, भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में प्रयास करते हैं और भारत की आजादी के लिए चले संघर्ष के महानायकों की खुल्लमखुल्ला अनदेखी और दबा-ढंका विरोध करते हैं. इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि इस संघर्ष में उनकी कोई भूमिका नहीं थी.

मार्क्स, मैकॉले और मदरसा

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जब भी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है, तभी इतिहास की पुस्तकों के पुनर्लेखन का काम शुरू हो जाता है क्योंकि उसका आरोप है कि अभी तक इतिहासलेखन पर तीन एम यानि मार्क्स, मैकॉले और मदरसा का वर्चस्व रहा है. जब 1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो भाजपा के पूर्वावतार जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता पहली बार मंत्री बने. इसके कुछ समय बाद ही राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में फेरबदल की कोशिश शुरू हो गई. लेकिन यह मिलीजुली सरकार सवा दो साल भी नहीं चल पायी और यह कोशिश भी परवान न चढ़ सकी.

इसके बाद 1998 से 2004 तक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में रही. मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी के दिशा निर्देशन में एक बार फिर इतिहास की पाठ्यपुस्तकें बदलने का काम शुरू हुआ. इस समय केंद्र और राजस्थान में भाजपा की सरकार है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि इतिहास को अपने हिसाब से लिखवाने की कोशिश जोरों से शुरू हो गई है.

क्या कहती हैं किताबें?

जहां पहले भाजपा का ध्यान विशेष रूप से प्राचीन और मध्यकालीन भारत के इतिहास पर था, वहीं अब वह आधुनिक इतिहास को भी हिंदुत्ववादी दृष्टि से लिखवाने को प्राथमिकता दे रही है. राजस्थान के सरकारी स्कूलों में कक्षा आठ में पढ़ाई जाने के लिए सामाजिक विज्ञान की जो पाठ्यपुस्तक तैयार की गई है, उसे पढ़कर विद्यार्थियों को यह पता नहीं चल सकता कि जवाहरलाल नेहरू इस भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे. पूरी पुस्तक में उनका उल्लेख केवल एक जगह आया है. 'हमारा संविधान' शीर्षक अध्याय में पृष्ठ 91 पर विद्यार्थियों को बताया गया है: "संविधान सभा में पं. जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसंबर 1946 को संविधान के उद्देश्यों को तय करने वाला एक 'उद्देश्य प्रस्ताव' रखा जो 22 जनवरी 1947 को सभी की सहमति से पारित हुआ."

दिलचस्प बात यह है कि 'आजादी के बाद का भारत' शीर्षक अध्याय में नेहरू का नाम सिरे से गायब है. केवल सरदार पटेल की चर्चा की गई है. इसी तरह सरोजिनी नायडू और मदन मोहन मालवीय जैसे नेताओं के नाम भी पुस्तक से नदारद हैं. इस पुस्तक को पढ़ने वाले विद्यार्थियों को यह भी पता नहीं चल सकेगा कि आजादी के बाद के भारत की एक बहुत बड़ी त्रासदी महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे द्वारा की गई हत्या थी. 'हमारे गौरव' शीर्षक अध्याय में जिन गौरव पुरुषों की सूची दी गई है, उसमें कवि चंद बरदाई, 'विश्व के प्रथम शल्यचिकित्सक' सुश्रुत, प्राचीन काल के गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त और आधुनिक काल के गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन तथा महर्षि पाराशर तो शामिल हैं, लेकिन एक भी गैर-हिन्दू का नाम नहीं है.

नेहरू से दिक्कत?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े भाजपा जैसे संगठन महात्मा गांधी और भीमराव अंबेडकर की प्रशंसा करने का चाहे जितना ढोंग क्यों न करें, पिछली सदी का इतिहास साक्षी है कि इन दोनों से उनका विरोध नफरत की हद तक जा चुका था. गोडसे संघ का सदस्य था और बाद में विनायक दामोदर सावरकर से प्रभावित हो गया था. नेहरू की धर्मनिरपेक्षता हमेशा से संघ की आंख में चुभती रही है. यह आकस्मिक नहीं है कि एक ओर उनका नाम पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा रहा है और दूसरी ओर उनके नाम पर बने विश्वविद्यालय को नष्ट करने की कोशिशें की जा रही हैं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार