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ब्लॉगरों की कब्रगाह बन रहा है बांग्लादेश

प्रभाकर, कोलकाता८ अप्रैल २०१६

बांग्लादेश में ब्लॉगरों के लिए जीना मुश्किल होता जा रहा है. अपने विचार व्यक्त करने के बदले उन्हें मौत हासिल हो रही है. आखिर ऐसा क्यों है?

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तस्वीर: AFP/Getty Images/P. Baz

बुधवार को एक छात्र नजीमुद्दीन समाद की हत्या कर दी गई. बीते लगभग एक साल के दौरान देश में आधा दर्जन ब्लॉगरों की सरेआम हत्या हो चुकी है. लेकिन अब तक महज एक मामले में ही आरोपियों को सजा हो सकी है. इससे कट्टपंथियों के हौसले बुलंद हैं. इन हत्याओं के पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरने के बावजूद सरकार अब तक इन कट्टरपंथी ताकतों पर अंकुश लगाने में नाकाम ही रही है. इससे बुद्धिजीवी तबके में भारी नाराजगी है.

ताजा मामला

ताजा मामले में बीते बुधवार को राजधानी ढाका स्थित जगन्नाथ विश्वविद्यालय के पोस्ट-ग्रेजुएट छात्र समाद की पांच-छह हमलावरों ने धारदार हथियारों से गोद कर हत्या कर दी. प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, कुछ लोगों ने अचानक समाद पर हमला कर दिया और बाकी लोग जब तक कुछ समझें, तब तक हमलावर मौके से फरार हो गए. इस हत्या की सूचना मिलते ही विश्वविद्यालय के छात्रों ने समाद की सुरक्षा में पुलिस की नाकामी के खिलाफ सड़कें जाम की और नारेबाजी की. छात्रों का दावा है कि समाद पहले से ही धर्मिक कट्टरपंथियों के निशाने पर था. समाद की हत्या की पूरी दुनिया ने निंदा की है. पुलिस का कहना है कि समाद की हत्या भी उसी तरीके से की गई है जिस तरह बीते एक साल के दौरान दूसरे धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगरों को मारा गया है.

क्या है वजह

दरअसल, इन हत्याओं की जड़ें धार्मिक कट्टरपंथ में छिपी हैं. बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठन किसी भी धर्मनिरपेक्ष लेख या प्रकाशक को बर्दाश्त नहीं कर सकते. कट्टरपंथी संगठनों का असर बढ़ने की वजह से हाल में ईसाई तबके के लोगों पर भी हमले के मामले बढ़े हैं. वर्ष 2013 में अंसारुल्लाह बांग्ला टीम नामक एक कट्टरपंथी संगठन ने 84 धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगरों की एक हिट-लिस्ट प्रकाशित की थी. इनमें उन सभी लोगों के नाम शामिल थे, जो अपनी लेखनी के जरिये धार्मिक समानता, महिला अधिकार और अल्पसंख्यकों का मुद्दा उठाते रहते थे.

सरकार को शक है कि तमाम ब्लॉगरों की हत्याओं के पीछे इसी संगठन का हाथ है. बावजूद इसके सरकार के साथ-साथ तमाम राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. इस्लामी चरमपंथियों के एक गुट ने फरवरी 2013 में राजीव हैदर नामक एक धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगर की उसके घर के सामने ही हत्या कर दी थी. अब तीन साल बाद उस मामले में दो लोगों को मौत की सजा दी गई है और छह को कारावास की. जिनको मौत की सजा दी गई, उनमें से एक अब तक पकड़ा ही नहीं जा सका है. हैदर के पिता इस सजा से संतुष्ट नहीं हैं. ब्लॉगरों की हत्या के दूसरे मामलों में तो अब तक किसी को गिरफ्तार ही नहीं किया जा सका है.

इस सिलसिले की शुरुआत 14 जनवरी 2013 को ढाका में एक ब्लॉगर आसिफ मोहिउद्दीन पर हमले से हुई थी. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि तीन महीने बाद धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के आरोप में आसिफ को तीन अन्य धर्मिनरेपेक्ष ब्लॉगरों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. आसिफ बाद में जमानत पर रिहा हो कर जर्मनी चला गया.

धर्मनिरपेक्षता का सवाल

वर्ष 1971 में पाकिस्तान से आजाद होने के बाद बांग्लादेश को अधिकृत रूप से एक धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया गया था. लेकिन वर्ष 1988 में तत्कालीन सैन्य शासकों ने सत्ता पर पकड़ मजबूत बनाने के लिए इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म का दर्जा दे दिया. बुद्धिजीवियों की राय में यही फैसला देश में कट्टरपंथियों व धर्मनिरपेक्ष लोगों के बीच दशकों से चले आ रहे विवाद की प्रमुख वजह है.

धर्मनिरपेक्ष लोगों व संगठनों की दलील रही है कि इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म का दर्जा मिलने से अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार को बढ़ावा मिला है. अब बीते महीने हाईकोर्ट ने धर्मनिरपेक्ष संगठनों की ओर से इस मुद्दे पर दायर एक याचिका पर सुनवाई पर सहमति दे दी है. अदालत के इस फैसले के विरोध में जमाते-ए-इस्लामी नामक संगठन ने हाल में देशव्यापी हड़ताल बुलाई थी. संगठन ने एक बयान में इसे मुस्लिम-बहुल राष्ट्र में धर्म के खिलाफ एक सुनियोजित साजिश करार दिया है. संगठन का कहना है कि मुट्ठी-भर धर्मविरोधी ताकतों को खुश करने के लिए इस्लाम से राष्ट्रीय धर्म का दर्जा छीनने का सरकारी फैसला आम लोग कभी कबूल नहीं करेंगे.

सरकारी दावा

बांग्लादेश के कानून मंत्री अनीसुल हक ने कहा है कि राजीव हैदर हत्याकांड में अदालत के फैसले से देश की कानून व्यवस्था पर लोगों का भरोसा लौटेगा. लेकिन देश का बुद्धिजीवी तबका ऐसा नहीं मानता. ब्लॉगर अन्नया आजाद कहती हैं, "इस मामले में हत्या का जुर्म कबूल करने के बावजूद ज्यादातर हमलावरों को मामूली सजा देकर छोड़ दिया गया. कुछ साल बाद जेल से बाहर निकलने पर ये लोग धर्मनिरेपक्ष लोगों के सफाए का अभियान चलाएंगे." उनके मुताबिक, "अदालत के फैसले से साफ हो गया है कि इस देश में तलवार कलम से ज्यादा ताकतवर है."

लेकिन बुद्धिजीवियों का एक गुट मानता है कि सरकार ने पूरी दुनिया में हो रही फजीहत के बाद अब इस दिशा में प्रयास शुरू किया है. राजीव के हत्यारों को सजा मिलना इसी का सबूत है. कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के एशिया रिसर्च एसोसिएट सुमित गलहोत्रा कहते हैं, "देर आयद, लेकिन दुरुस्त आयद. यह देश में ब्लॉगरों के खिलाफ जारी हिंसा पर अंकुश लगाने की दिशा में पहला कदम हो सकता है."