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पूर्व राष्ट्रपति का अभूतपूर्व निर्णय

मारिया जॉन सांचेज
३० मई २०१८

ऐसी क्या मजबूरी थी कि प्रणब मुखर्जी ने संघ का निमंत्रण स्वीकार करके समारोह में जाने और व्याख्यान देने का फैसला किया? क्या इसके पीछे भविष्य की कोई राजनीतिक योजना है?

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Präsident Indien Pranab Mukherjee
तस्वीर: picture-alliance/dpa

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षा वर्ग के दीक्षांत समारोह में शामिल होने और वहां व्याख्यान देने के लिए सरसंघचालक मोहन भागवत का निमंत्रण स्वीकार कर लिया है. यह समारोह आगामी 7 जून को नागपुर में संपन्न होगा जहां संघ का मुख्यालय है. जीवन भर कांग्रेस विचारधारा से जुड़े रहने वाले प्रणब मुखर्जी का संघ के कार्यक्रम में जाकर भाषण देने का फैसला बहुत लोगों के गले नहीं उतर रहा है क्योंकि अनेक भटकावों के बावजूद कांग्रेस की आधिकारिक विचारधारा धर्मनिरपेक्षता रही है और आज भी है, जबकि संघ हिंदुत्व की साम्प्रदायिक विचारधारा के आधार पर संचालित होता है.

जो भी देश का प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति बनता है, पद पर आसीन होते ही वह सभी राजनीतिक दलों से ऊपर उठ जाता है और उसकी एकमात्र निष्ठा देश के संविधान के प्रति होती है. उसका एकमात्र कर्तव्य संविधान की हिफाजत करना है. राष्ट्रपति के पद से मुक्त होने के बाद आज तक किसी भी पूर्व राष्ट्रपति ने देश की राजनीति में कोई भूमिका नहीं निभायी. इसलिए लोग इस बात पर आश्चर्य कर रहे हैं कि फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि प्रणब मुखर्जी ने संघ का निमंत्रण स्वीकार करके समारोह में जाना और व्याख्यान देना स्वीकार कर लिया. क्या इसके पीछे भविष्य की कोई राजनीतिक योजना है?

हो भी सकती है, क्योंकि मुखर्जी भले ही राजनीतिक दलों और सक्रिय राजनीति से अलग हो चुके हैं, लेकिन उनके परिवार के लोग तो अलग नहीं हुए हैं. क्या मुखर्जी भाजपा के माध्यम से अपने परिजनों का राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं? क्या वे स्वयं भविष्य में परदे के पीछे रहकर सलाहकार की भूमिका निभाने के लिए तत्पर हैं? संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके तहत पूर्व राष्ट्रपति के लिए सक्रिय राजनीति से न जुड़ने की अनिवार्यता हो. हां, अभी तक ऐसी परंपरा जरूर रही है. लेकिन सभी परंपराएं एक न एक दिन टूटने के लिए ही बनती हैं. किसे मालूम है कि यह परंपरा भी टूटने वाली है या नहीं.

मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच संबंध अत्यंत मधुर रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन ने अपने समय की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को सांप्रदायिकता और दलितों एवं अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमलों के बारे में चेताया था. यही नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल की सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को भी पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया था. पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने 1996 में दो अध्यादेश केंद्र सरकार के पास पुनर्विचार के लिए भेज दिए थे. एपीजे अब्दुल कलाम ने भी मनमोहन सिंह सरकार के समय ऐसा ही किया था. लेकिन भूमि अधिग्रहण संबंधी विवादास्पद अध्यादेश को भी मुखर्जी ने मोदी सरकार के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेजा. न ही अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को मानने में एक क्षण का समय भी लगाया.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास है कि वह प्रतिष्ठित व्यक्तियों को निमंत्रित करके अपनी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा बढ़ाता रहा है और उनकी शिरकत को अपने लिए अनुमोदन की तरह पेश करता रहा है. पूरी जिंदगी कांग्रेस में गुजारने के बाद पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर जाने को भी वह अपने पक्ष में भुनाएगा, इसमें कोई शंका नहीं होनी चाहिए. महात्मा गांधी ने संघ के बारे में क्या कहा, इसे नजरअंदाज करके वह सिर्फ इसी बात का बखान करता रहता है कि एक बार वे वर्धा में संघ के कार्यक्रम में आये थे.

इसी तरह जवाहरलाल नेहरू के संग के प्रति अटूट आलोचनात्मक रुख के बावजूद वह यह दुहराता रहता है कि 1963 में नेहरू ने उसके समूह को गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का न्योता दिया था. अभी तक यह भी असंदिग्ध रूप से प्रमाणित नहीं हो सका है कि क्या वास्तव में ऐसा हुआ भी था. एक समय जब प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी ने विजयदशमी के अवसर पर संघ के स्थापना दिवस के समारोह में नागपुर जाकर व्याख्यान दिया था, तब भी संघ ने इसे अपनी छवि चमकाने के लिए इस्तेमाल किया था. उस समय शौरी ने भाजपा की सदस्यता स्वीकार नहीं की थी और उनकी छवि एक तर्ज-तर्रार स्वतंत्र संपादक की थी. इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि प्रणब मुखर्जी की संघ के कार्यक्रम में शिरकत को संघ अपने हित में भुनाएगा तो जरूर.

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