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क्या फिर लिखा जाए भारत का संविधान

रिपोर्टःअनवर जे अशरफ़ (संपादनः आभा मोंढे)२१ जनवरी २०१०

पिछले 60 साल में 90 से ज़्यादा संशोधन. यानी हर साल भारतीय संविधान में डेढ़ से ज़्यादा बदलाव हुए. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या संविधान को फिर से लिखा जाए.पर यह बात भी आती है कि क्या मौजूदा संविधान का सही पालन हो रहा है.

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तस्वीर: Picture-Alliance / Photoshot

पहला संशोधन तो भारतीय संविधान लागू होने के साल भर बाद ही करना पड़ा, जब ज़मींदारी प्रथा ख़त्म की गई. फिर बदलते वक़्त और बदलते भारत की ज़रूरत को देखते हुए संशोधन किए जाते रहे. नए राज्य जुड़ते गए और नई मांग उठती गई.

संविधान बदलने की मांग

कोई तीन साल पहले तमिलनाडु सरकार के राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला ने संविधान को फिर से लिखने की बात उठा दी. बरनाला का कहना था कि पिछले 50 साल में भारत में बहुत बदलाव हुए हैं लेकिन पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों को अभी भी अपने हक़ के लिए लड़ना पड़ता है. ऐसे में संविधान को फिर से लिख दिया जाना चाहिए. बरनाला यह तर्क भी दे गए कि राज्यों की शक्ति बढ़नी चाहिए कई देशों में संविधान दोबारा लिखा जा चुका है.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख रह चुके के सुदर्शन भी संविधान को दोबारा लिखने की मांग कर चुके हैं और इस बारे में मुहिम चलाने की बात कर चुके हैं.

क़ायदे क़ानून की बारीकियों से दूर रहने वाला आम इनसान भले ही इस मुद्दे से भी दूर रहना चाहता हो लेकिन एक सवाल तो उठ खड़ा होता ही है कि क्या भारतीय संविधान को बदले जाने की ज़रूरत है.

दस साल पहले कुछ ऐसी ही बहस उठी थी, जब गणतंत्र दिवस के दिन ही उस वक्त के राष्ट्रपति केआर नारायणन और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बीच संविधान के मुद्दे को लेकर मतभेद हो गए. भारतीय गणतंत्र के 50 साल हुए थे और बीजेपी सरकार का कहना था कि संविधान की समीक्षा की जानी चाहिए.

Atal Bihari Vajpayee
संविधान की समीक्षा की मांग की थी अटल जी नेतस्वीर: AP

वाजपेयी सरकार अचानक राजनीतिक पार्टियों के निशाने पर आ गई. आरोप लगने लगे कि बीजेपी अपने हिडेन एजेंडा के लिए संविधान समीक्षा की बात कर रही है. फिर भी राष्ट्रीय आयोग बना, नियुक्तियां हुईं. छह महीने का वक़्त तय हुआ. इस बात पर गहरा शक़ जताया गया कि राजेंद्र प्रसाद और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर जैसे दिग्गजों को संविधान पूरा करने में तीन साल लग गए. लेकिन इस पूरे संविधान की समीक्षा सिर्फ़ छह महीने में कैसे होगी. 10 साल बाद इस समीक्षा का कुछ अतापता नहीं. शायद शक़ सही साबित हुआ.

वोट की रोटी

वैसे भारतीय संविधान का आधार इतना शक्तिशाली है कि इसे हिलाना आसान नहीं. सबसे पहले तो संविधान में ख़ुद ही उल्लेख है कि अगर बदलाव की ज़रूरत पड़े तो इसकी मूल आत्मा को छेड़े बग़ैर संविधान में संशोधन किए जा सकते हैं. पिछले 60 सालों में ऐसा 94 बार किया जा चुका है.

दूसरे संविधान में कोई भी संशोधन तभी संभव है, जब भारतीय संसद के दोनों सदनों में यह दो तिहाई बहुमत से पास हो जाए. कई मामलों में राज्यों में भी इस पर सहमति ज़रूरी है. एक दूसरे की टांग खींचने में लगी भारतीय राजनीतिक पार्टियां संशोधनों को ही पास करने में इतनी हाय तौबा मचाती हैं तो संविधान दोबारा लिखने के मुद्दे पर तो और भी बड़ा बवाल खड़ा होगा. जो भी पार्टी इसकी पहल करेगी, इन आरोपों में घिर जाएगी कि वह निजी स्वार्थ के लिए ऐसा करना चाहती है.

भारतीय संविधान की संरचना स्वतंत्रता के ठीक बाद ऐसे व्यक्तित्वों ने की थी, जिनकी क़ाबिलियत पर रत्ती भर शक़ नहीं किया जा सकता. डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अगर संविधान सभा के अध्यक्ष थे, तो डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ड्राफ़्ट समिति के. दलित तबक़े से आने वाले डॉक्टर अंबेडकर भारतीय संविधान के सबसे बड़े शिल्पकार समझे जाते हैं. संविधान बदलने की बात उठेगी तो इसे डॉक्टर अंबेडकर के व्यक्तित्व और उनके दलित होने से जोड़ दिया जा सकता है. फिर राजनीतिक रोटी सेंकने का एक और मौक़ा मिल जाएगा.

पेचीदगियों में जाने से बेहतर इस बात को समझना है कि संविधान को सही ढंग से लागू कर दिया जाए और आम नागरिक अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों की भी बात सोच ले, तो शायद ऐसे सवाल ही नहीं उठें.