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किसे चाहिए पहाड़ों का रौद्र विकास?

शिवप्रसाद जोशी
२३ मई २०१८

चीन सीमा और चार धामों तक पहुंचने वाली सड़को को उच्चस्तर का बनाया जाना है. लेकिन इस प्रोजेक्ट को लेकर आशंकाएं और विवाद भी उभर आए हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, एनजीटी ने कुछ सवाल उठाए हुए हैं.

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Indien Arunachal Pradesh - Tawang Kloster
तस्वीर: picture-alliance/dpa/dinodia

केंद्र की विशाल ऑल वेदर रोड परियोजना के तहत करीब 12 हजार करोड़ रुपये की इस परियोजना को अगले साल मार्च तक पूरा करने का लक्ष्य था लेकिन पिछले दिनों लोकसभा में सरकार ने बताया कि सामरिक महत्व का यह नेटवर्क मार्च 2020 तक ही तैयार हो पाएगा. इसे नए उत्तराखंड का सूचक बताया गया है. तरक्की के सपनों में भी कोई हर्ज नहीं. लेकिन ये सड़कें क्या उत्तराखंड के पर्यावरण को दुरुस्त कर देंगी या पलायन की तीव्र दर को रोक देंगी या रोजगार के नए अवसर पैदा कर पाएंगी - इस तरह के बहुत से सवाल आम लोगों से लेकर पर्यावरणवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं तक सबके जेहन में हैं.

उत्तराखंड में विकास के इस नए 'प्रतिमान' पर चर्चा से पहले कुछ बातें याद दिलाना जरूरी है. प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से उत्तराखंड देश का छठवां सबसे अमीर राज्य है लेकिन इस आय में वृद्धि का संबंध निर्माण और सर्विस सेक्टर से है जो अधिकांशतः मैदानी क्षेत्रों तक ही सीमित है. राज्य के 16 हजार से ज्यादा गांव, अब भी विकास को तरस रहे हैं. कहने को सड़कें और बिजली तो कई गांवों तक पहुंच गई हैं लेकिन इनके साथ रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का अभाव बना हुआ है. सार्वजनिक स्वास्थ्य की सबसे निचली इकाई, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की हालत दयनीय है. 68 फीसदी केंद्र ही ठीकठाक काम कर पा रहे हैं. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में कर्मचारियों की किल्लत है, 83 फीसदी आपातकालीन विशेषज्ञों की कमी से जूझ रहे हैं. उत्तराखंड, शिशु मृत्यु दर के लिहाज से देश के राज्यों में 18वें नंबर पर है. स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में सुधार के मामले में उत्तराखंड अपने पड़ोसी पहाड़ी राज्य हिमाचल से पीछे है. लोग बड़े पैमाने पर शहरी इलाकों की ओर पलायन कर रहे हैं.

पहाड़ों का रिसॉर्टीकरण

पलायन की तीव्रता का अंदाजा इस बात से लग सकता है कि करीब 13 फीसदी की दर से पहाड़ों की आबादी घट रही है, तो 32 फीसदी की दर से मैदानी इलाकों में आबादी बढ़ रही है. इससे मैदानों पर भी बोझ बढ़ रहा है, शहर फैल तो रहे हैं लेकिन सुविधाएं सिकुड़ रही हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक एक हजार से अधिक गांव बिल्कुल खाली हो चुके हैं और उन्हें भुतहा कहा जाने लगा है. पिछले सात साल के दरम्यान यह आंकड़ा बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ. रिवर्स पलायन की बातें तो की जा रही हैं लेकिन इसके सटीक आंकड़े नहीं मिले हैं. पहाड़ों की प्रकट खूबसूरती के भीतर तकलीफों की भी सुनसान घाटियां हैं, वे नहीं दिखतीं. सरकारें भी पहाड़ों के रोमान को भुनाती हैं लेकिन व्यवहारिक तौर पर पर्यटन नीति इतनी आकर्षक नहीं कि पर्यटक खिंचे चले आए. पहाड़ों का बस रिसॉर्टीकरण हो रहा है.

2010 से 2015 के बीच उत्तराखंड में सालाना औसत वृद्धि चार प्रतिशत दर्ज की गई. हिमाचल थोड़ा बेहतर है जहां खेती की सालाना औसत वृद्धि नौ प्रतिशत थी. वहां हॉर्टीकल्चर और पारंपरिक खेती को सरकारी नीतियों का सहारा मिला. लेकिन उत्तराखंड में कृषि के विकास के लिए कोई रणनीति नहीं बनी. रही सही कसर जंगली सुअरों और बंदरों ने पूरी कर दी जो फसल को चौपट कर रहे हैं और खेतों और गांव के पास के जंगलों पर जिनका कब्जा है. लोग अपने खेतों को बंजर ही छोड़ रहे हैं या अच्छी कीमत मिलते ही बेचने को तैयार हैं. कम बारिश, या असाधारण बारिश से नुकसान, रात के तापमान में असाधारण बढ़ोतरी, बीजों की किल्लत, हल लगाने के लिए बैलों की कमी, पानी की कमी, जंगल की आग आदि कई कारण हैं जिनसे खेती पर असर पड़ा है. जलवायु परिवर्तन तो एक बड़ा फैक्टर है ही, इतने बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण भी पहाड़ के पर्यावरण और पारिस्थितिकी को प्रभावित करेगा.

मकसद क्या है?

ऑल वेदर रोड के कुछ स्पष्ट औचित्य हैं: चीन सीमा से जुड़ा होने की वजह से सीमांत इलाकों तक चौड़ी सड़कें, सामरिक और रक्षात्मक जरूरतें और रोजाना के यातायात की बेहतरी. सड़कें अवरुद्ध न हों और आम लोगों या यात्रियों को परेशानी न हो, यह बात भी सही है. लेकिन इन सामरिक इरादों या सरकारी सदाशयताओं को थोड़ा किनारे रख कर देखें तो जिस बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जा रहे हैं, और जमीनें निगली जा रही हैं, वह पहाड़ों की सेहत से तो सीधा सीधा खिलवाड़ माना जाएगा. क्या पहाड़ों के हाइवे, मैदानों के आठ लेन या चार लेन की तरह चौड़े और चमक भरे होने चाहिए? अगर मौजूदा सड़कों की ही अच्छी मरम्मत कर दें, मजबूती से पुश्ते लगा दें, मजबूत पुल बना दें और यातायात के नियमों का सख्ती से पालन कराएं तो क्या दिक्कत है?

देखा गया है कि सड़कों के विस्तार से ज्यादा यातायात नियमों की अनदेखी और कानूनों की अवहेलना ही सड़क दुर्घटनाओं और सड़क दुर्दशाओं का कारण बनती हैं. फिर इतना पैसा बहाने का क्या औचित्य? अगर चीन तक रक्षा वाहनों की खेप आसानी से पहुंचाने का मामला है तो यह बात गले नहीं उतरती. निश्चित समयावधि में और यातायात को एक निश्चित अंतराल के लिए नियंत्रित कर, यह काम तो कभी भी किया जा सकता है, और यह होता भी रहा है, तो अचानक यह सामरिकता कैसे याद आ गई.

भारत और चीन की सेना

ऑल वेदर चार धाम सड़क परियोजना केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमनोत्री के धार्मिक स्थलों को भी और सुविधापूर्ण ढंग से जोड़ेगी. लेकिन क्या सुविधा की कोई आखिरी परिभाषा या कोई आखिरी पैमाइश हो सकती है? और वे तो पहले से जुड़े हैं ही. ठीक है थोड़ी तकलीफ रास्तों पर होती है लेकिन क्या पहाड़ी सड़कों पर हम मैदानी हाईवे की तरह हवा से बात करने के लिए आते हैं या सावधानी और सजगता के साथ सफर करते हैं? इन सारे सवालों का जवाब यह परियोजना नहीं देती. उन्हें चौड़ा करने के बजाय उन पर हो रहे यातायात को नियंत्रित किए जाने की जरूरत है. आज गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक वाहनों की भीड़ से त्रस्त हैं. डीजल, पेट्रोल के प्रदूषण के अलावा प्लास्टिक ने भी हिमालयी स्थलों को रौंद दिया है. 

पहाड़ों से खिलवाड़

एनजीटी ने केंद्र और राज्य सरकार को इस बारे में नोटिस भी दिया है. यह कारण बताओ नोटिस उस याचिका के बाद आया जिसमें बताया गया था कि इस सड़क प्रोजेक्ट के तहत 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए. एनवायरन्मेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट (ईआईए) को लेकर भी यह परियोजना खामोश है. तीसरी बात, यह प्रोजेक्ट उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उस क्षेत्र से भी गुजरेगा जिसे इको सेंसेटिव जोन घोषित किया जा चुका है. चार धाम प्रोजेक्ट के तहत 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाई जाएंगी.

इस परियोजना से इतर ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलमार्ग परियोजना भी स्वीकृत हो चुकी है जिसमें न सिर्फ बड़े पैमाने पर जंगल कटेंगे, वन्य जीवन प्रभावित होगा और पहाड़ों को काटकर सुरंगें और पुल निकाले जाएंगें. उधर पिथौरागढ़ में विशालकाय पंचेश्वर बांध परियोजना एक अत्यंत नाजुक भूगोल पर पांव पसार चुकी है. टिहरी बांध पहले से है ही, जहां आज कई देशी विदेशी कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं. सरकार तो रोप वे को भी बढ़ावा देने की योजना बना रही है. पहाड़ों में यहां से वहां जाने के लिए सुगम साधन बताया जा रहा है. आप सोचिए कि पहाड़ के विकास के नाम पर उसके साथ ऐसे खेल खेला जा रहा है जैसे वो कोई खिलौना है, जो जब चाहे मोड़ दे जहां चाहे घुमा दें.

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