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केजरीवाल की पार्टी के मायने

३ अक्टूबर २०१२

अरविंद केजरीवाल की पार्टी बनने के बाद क्या भारत में राजनीतिक व्यवस्था बदलेगी. क्या राजनीति से भ्रष्टाचार खत्म हो पाएगा. इसी मुद्दे पर वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक की समीक्षा.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

गांधीजी और शास्त्रीजी के चित्रों से सजी पृष्ठभूमि वाले मंच से अरविंद केजरीवाल ने अपने राजनीतिक सफर की औपचारिक शुरुआत कर दी. उन्होंने बाकायदा गांधी टोपी, जो अब "अण्णा टोपी" भी कहलाने लगी है, पहनी थी. वो शायद वही नारा लिखना पसंद करते जो पूरे "अन्ना आंदोलन" के दौरान टोपियों पर दिखाई देता रहा, "मैं अन्ना हजारे हूं." लेकिन उन्हें अन्ना के नाम और तस्वीर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं है. इसलिए उन्होंने लिखवाया, "मैं आम आदमी हूं." उन्होंने दुष्यंत कुमार के लिखे मशहूर गीत "हो चुकी है पीर पर्वत सी पिघनी चाहिए..." को भी मंच से गाया. ये सारे ही संकेत बहुत महत्वपूर्ण हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए "अन्ना आंदोलन" में बहुत अहम भूमिका निभाई. जहां अन्ना हजारे इस पूरे आंदोलन का चेहरा थे, वहीं उसकी आवाज और उसकी ऊर्जा के रूप में अरविंद की पहचान हुई. वो इस आंदोलन के ऐसे प्रवक्ता बने, जो पढ़ा लिखा है और उसके पास अपनी बात रखने के लिए मजबूत तर्क हैं. वो एक आईआरएस अधिकारी रहे हैं और मुद्दों की बुनियादी समझ उनके पास मौजूद है.
अन्ना की बातों में जहां बहुत अधिक सादगी और दोहराव है, वहीं अरविंद के पास अपनी बात रखने के लिए दस्तावेज और प्रमाण मौजूद हैं. राजनीति में आने के मुद्दे को लेकर अन्ना और अरविंद में दो राय हो गई. अगर आंदोलन के दौरान जनता के समर्थन में आई कमी और सरकार के रुख को देखते हुए केजरीवाल और उनके साथियों ने राजनीति में आकर अपनी बात मनवाने का रास्ता अपनाया है, तो निश्चित ही ये स्वागत योग्य है.

...लेकिन जैसा कि कहा जा रहा है कि शुरू से ही केजरीवाल और उनके साथी राजनीति में आने की महत्वाकांक्षा पाले हुए थे और इसके लिए उन्होंने अन्ना को और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन को माध्यम बनाया, तो ये निश्चित ही दुखद है. जिस पारदर्शिता की मांग अरविंद सरकार और समूची व्यवस्था से कर रहे हैं, वो उन्हें अपने सार्वजनिक जीवन में भी रखनी चाहिए.

राजनीति में आने का फैसला कतई बुरा नहीं है. अच्छे लोगों के आए बगैर व्यवस्था की गंदगी को सुधारा नहीं जा सकता. हम किसी तानाशाही से नहीं लड़ रहे. यह भी सही है कि अच्छे लोगों के लिए राजनीति की राह आसान नहीं है. क्योंकि हमारी चुनावी व्यवस्था मधु दंडवते को तो चुनाव हरवा देती है और शहाबुद्दीन जेल में बैठे बैठे चुनाव जीत जाते हैं. लेकिन कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी कि अच्छे लोग चुनकर आ सकें? राजनीति से डरकर दूर ना बैठें... व्यवस्था बदलने के लिए बंदूक उठाने की बजाय संसद में जाकर कानून बनवाने के लिए तैयार हो सकें?

अन्ना हजारे के आंदोलन का अचानक खत्म हो जाना एक झटका था, उन सबके लिए जो सामाजिक आंदोलन की ताकत में भरोसा रखते थे. जो यह मानते थे के राजनीति में आए बगैर भी बेहतर नीतिगत निर्णयों के लिए सरकार को तैयार किया जा सकता है. बल्कि वैकल्पिक सामाजिक और वैचारिक ताकत की उपस्थिति से लोकतंत्र मजबूत ही होगा. निश्चित ही इस विकल्प को पूरी तरह बंद नहीं हो जाने देना चाहिए. इस लिहाज से यह अच्छा ही है कि अन्ना ने अरविन्द को अपने नाम के इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी. "टीम अरविंद" के भटक जाने पर वो एक अंकुश की तरह काम करेंगे और जरूरत पड़ने पर "तुरुप के इक्के" की तरह भी इस्तेमाल किए जा सकेंगे.

बहरहाल अरविंद केजरीवाल के सामने बड़ी चुनौती यह है कि राजनेता और राजनीति की जिन बुराइयों के खिलाफ वो अब तक लड़ रहे थे उससे खुद को और अपनी टीम को कैसे दूर रख पाएंगे? अपने खर्चों का पूरा हिसाब कैसे जनता से साझा करेंगे? वो राजनीति के जिस अखाड़े में उतरे हैं वहां के दांव-पेंचों में उलझे बिना खुद को चित होने से कैसे बचाएंगे?

सामाजिक आंदोलन के मंच से तो राजनेता डरते थे लेकिन जिस अखाड़े में अरविंद उतर गए हैं वहां के घाघ और अनुभवी खिलाड़ी जानते हैं कि यह उनका मैदान है और यहां उन्हें हराना आसान नहीं. जनता को बेहतर राजनीतिक विकल्प का इंतजार है. लेकिन क्या टीम अरविंद सचमुच बेदाग चेहरों को ढूंढ कर सामने ला पाएगी? क्या जनता ऐसे लोगों को चुनने का साहस दिखा पाएगी जो गलत कामों में साथ देने की बजाय केवल व्यापक जनहित में सोचता हो? दिल्ली विधानसभा और उसके बाद लोकसभा के चुनावों में इन सवालों के जवाब का इंतजार रहेगा.

समीक्षाः जयदीप कर्णिक, संपादक, नई दुनिया

संपादनः अनवर जे अशरफ