कार्बन कटौती पर ओबामा के साथ
सालों से अमेरिका, चीन और भारत के साथ ग्रीन हाउस गैसों में कमी की अंतरराष्ट्रीय संधि का राह का मुख्य रोड़ा था. अमेरिका जलवायु परिवर्तन को नकारने वाली ताकतवर लॉबी का गढ़ था. वे लोग जिनका कहना है कि मानवीय गतिविधियों का जलवायु परिवर्तन से कोई लेना देना नहीं है. दिसंबर में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन से ठीक पहले प्राकृतिक ऊर्जा के इस्तेमाल को कम करने की ओबामा की वकालत ने पेरिस में संधि की संभावना को करीब ला दिया है. ओबामा 2030 तक कार्बन डाय ऑक्साइड के उत्सर्जन में 2005 के स्तर से 32 प्रतिशत की बाध्यकारी कमी चाहते हैं. इसका हमारे रहने के तरीके पर असर होगा.
अमेरिका में इसका मतलब होगा कि सैकड़ों कोयला आधारित बिजली घर बंद हो जाएंगे. पारंपरिक ऊर्जा पर निर्भर हजारों कंपनियां बंद हो जाएंगी, नौकरियां खत्म हो जाएंगी. यही दूसरे औद्योगिक देशों में भी होगा. ओबामा अक्षय ऊर्जा में व्यापक प्रसार चाहते हैं. यह महती चुनौती है. प्रभावित कंपनियां ओबामा प्रशासन के इस कदम का विरोध कर रही है. बहुत से लोग अभी तक ओबामा की नीति के विज्ञान को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. तो दूसरों की सोच है कि अक्षय ऊर्जा परंपरागत ऊर्जा की कमी को पूरा नहीं कर पाएगी. जब अमेरिकी जनता को ऊर्जा के लिए ज्यादा खर्च करना होगा तो निश्चित तौर पर ओबामा के कदमों का भारी विरोध होगा.
लेकिन इससे डरने की जरूरत नहीं है. परंपरागत स्रोतों और परमाणु बिजली घरों में बनने वाली बिजली भारी सरकारी सब्सिडी से चलती है. इसलिए अक्षय ऊर्जा में निवेश करने और खनिज संपदा को जलाना रोकने का समय आ गया है. ग्लोबल वॉर्मिंग हमारे मौसम को बदल रही है और जंगली आग, सूखा, बाढ़ और तूफान जैसी समस्याएं पैदा कर रहा है. मानवजाति का अस्तित्व संकट में है. पेरिस सम्मेलन अमेरिका के समर्थन से बाध्यकारी संधि हासिल करने का एक मौका है. हमें अमेरिका का साथ देने की जरूरत है, हमें मौके को दोनों हाथों से पकड़ना होगा. हम सब ओबामा हैं.
ब्लॉग: ग्रैहम लूकस/एमजे