कामयाबी बरकरार रखने की चुनौती
१४ जून २०१६2014 के लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने के बाद भारतीय जनता पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब आई है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में अब एक साल से कम समय बचा है और आगामी जनवरी से राज्य पूरी तरह से चुनावी माहौल की गिरफ्त में होगा. इस समय भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद उसका अपना प्रदर्शन है. 2014 में उसने उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से 71 जीत कर सबको सकते में डाल दिया था और अब उसके सामने विधानसभा चुनाव में भी इसी तरह की जीत हासिल करने की चुनौती है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि इलाहाबाद में हुई उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने एक प्रकार से राज्य में चुनाव अभियान का श्रीगणेश ही कर दिया. इस बैठक में यह भी स्पष्ट हो गया कि पार्टी पर मोदी का वर्चस्व बरकरार है और मोदी और शाह के बीच का श्रम विभाजन भी जारी है. मोदी विकास के मंत्र का जाप करेंगे और शाह मथुरा और कैराना जैसे भावनात्मक मुद्दों को उछालेंगे जिन पर अस्मितामूलक राजनीति को परवान चढ़ाया जा सके.
भाजपा को भी मालूम है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव से काफी भिन्न होंगे. दिल्ली और बिहार में उसे यह सबक मिल चुका है. दिल्ली में उसने लोकसभा की सभी सातों सीटें जीती थीं लेकिन दस माह बीतते-बीतते उसकी यह हालत हो गई कि विधानसभा चुनाव में उसे 70 सीटों में से केवल तीन पर ही सफलता मिल सकी. बिहार में भी उसे हार का सामना करना पड़ा. इसलिए उत्तर प्रदेश में वह बहुत सावधानी के साथ कदम बढ़ा रही है. लेकिन समस्या यह है कि जब लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के लिए उतरे थे, तब वे मतदाताओं से किसी भी किस्म का वादा करने के लिए स्वतंत्र थे, और उन्होंने वादे करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी. विदेशों से काला धन वापस लाकर हर देशवासी की जेब में 15 लाख रुपये डालने का वादा, भ्रष्टाचार मिटाने और एक ऐसी साफ-सुथरी पारदर्शी सरकार देने का वादा जो तेजी के साथ देश की अर्थव्यवस्था का विकास कर सके, युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करने का वादा और कीमतें घटाने का वादा उन वादों में से प्रमुख हैं. उत्तर प्रदेश का चुनाव आते-आते मोदी सरकार के कार्यकाल के भी लगभग तीन वर्ष पूरे होने वाले होंगे और उनकी सरकार का तीन वर्षों का रिकॉर्ड भी मतदाता के सामने होगा. लोकसभा चुनाव में मोदी-केंद्रित प्रचार से सबसे अधिक प्रभावित और उत्साहित नौजवान हुए थे क्योंकि उन्हें लगा था कि रोजगार पाने का उनका सपना पूरा हो सकेगा. लेकिन तीन वर्ष बाद वही नौजवान देखेगा कि कितने रोजगार पैदा हुए. कीमतों में वृद्धि भी मतदाता के उत्साह को कम करेंगी.
इस मोहभंग का सामना करने के लिए भाजपा उन मुद्दों को उछालेगी जिनसे भावनात्मक आवेश और आक्रोश उत्पन्न हो ताकि लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटा जा सके. इसमें राज्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की मौन सहमति भी उसके साथ है क्योंकि समाजवादी पार्टी को यह गलतफहमी है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति में उसे भी फायदा होगा क्योंकि सुरक्षा की तलाश में मुसलमान उसकी शरण में आएंगे. लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वे मायावती की बहुजन समाज पार्टी के पास नहीं जाएंगे. बिहार की तुलना में उत्तर प्रदेश में भाजपा को आसानी यह है कि बिहार में तो एक-दूसरे के जबरदस्त राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अपनी शत्रुता भूलकर एक हो गए थे लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती के एक होने की फिलहाल तो कोई संभावना नजर नहीं आती. हां, कांग्रेस और अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल और वामपंथी पार्टियां जरूर एक गठबंधन बना सकते हैं लेकिन वह कितना प्रभावी होगा, कहना कठिन है.
इलाहाबाद में भाजपा ने तय किया है कि फिलहाल वह मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को अपना उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी. नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में दो पूर्व मुख्यमंत्रियों राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह के कार्यकाल की तारीफ करके स्पष्ट संकेत दिया है कि इनमें से किसी को फिर से मौका दिया जा सकता है. उधर यह कयास भी लगाया जा रहा है कि यदि कांग्रेस ने राहुल गांधी या प्रियंका गांधी वाड्रा को मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया तो भाजपा वरुण गांधी को मैदान में उतार सकती है. अभी तक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी केवल आर्थिक और राजनीतिक प्रस्ताव ही पारित किया करती थी. इस बार उसने मोदी सरकार के दो वर्ष के कार्यकाल की प्रशंसा में एक प्रस्ताव पारित करके यह दिखा दिया है कि उस पर मोदी का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो चुका है. उसके अब तक के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था, उसके पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ में भी नहीं.