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करार नहीं है हिंदू लॉ में शादी का आधार

३० जनवरी २०१७

भारत में लिवइन रिलेशनशिप के मामले बढ़ रहे हैं. लिवइन रिलेशनशिप में रह रही महिलाओं के कानूनी हक सुरक्षित करने में विधायिका भले ही सुस्त हो लेकिन न्यायपालिका इस दिशा में कारगर पहल कर रही है.

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Oberstes Gericht Delhi Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

देश की उच्च अदालतों ने विवाह से इतर लिवइन में रह रहे जोडों को पति-पत्नी का दर्जा देने से लेकर भरण-पोषण का अधिकार देने तक तमाम अहम फैसले देकर इसे वैध रिश्ते का जामा पहनाने की कारगर पहल की है. लेकिन पर्सनल लॉ बनाम समान नागरिक संहिता की तेज होती बहस के बीच वैयक्तिक कानून की पेंचीदगी पति-पत्नी के रिश्ते को कानूनी जामा पहनाने की राह में बाधा बन गई है. हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक हिंदू महिला को महज इस आधार पर पत्नी का दर्जा देने से इंकार कर दिया कि उसने पूरे रीति रिवाज से शादी नहीं की थी. अदालत ने हलफनामे पर शादी के करार को पति पत्नी होने का आधार मानने से इंकार कर दिया. हाईकोर्ट ने महिला को कथित पति की मौत के बाद अनुकंपा नौ‍करी देने की अर्जी अस्वीकार करते हुए यह महत्वपूर्ण व्यवस्था दी. 

फैसले का आधार

जस्टिस प्रतिभा रानी ने करार को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत शादी का आधार मानने से इंकार कर दिया. अदालत ने कहा है कि हिंदू लॉ के तहत शादी एक संस्कार है, जबकि मुस्लिम लॉ के तहत शादी एक करार है. ऐसे में हिंदू लॉ के तहत रीति-रिवाज और संस्कारों को अपनाए बगैर महज दस्तावेजों पर किए गए अनुबंध को विवाह नहीं माना जा सकता है.

अदालत के अनुसार हिंदू शादी तभी मान्य होगी जब इसे पूरे विधि विधान से संपन्न किया जाए, जबकि इस मामले में महिला ने महज एक शपथपत्र के आधार पर खुद को दिल्ली सरकार के एक कर्मचारी की पत्नी बताते हुए उसकी मौत के बाद अनुकंपा नौकरी का हकदार होने का दावा किया था. हालांकि उसने स्वीकार किया कि उन्होंने हिंदू होने के नाते पारंपरिक तरीके से शादी का अनुष्ठान पूरा नहीं किया था.

मामले के त‍थ्य 

इस मामले में याचिकाकर्ता महिला ने सरकारी अस्पताल के कर्मचारी की विधवा होने का दावा करते हुए अनुकंपा नौकरी देने की मांग की. महिला की दलील थी कि उसने 2 जून 1990 को शादी के शपथपत्र के जरिए अनुबंध के आधार पर विवाह किया था. हालांकि शादी के वक्त पुरुष पहले से शादीशुदा था. वह पहली पत्नी की 1994 में हुई मौत के बाद याचिकाकर्ता महिला के साथ रहने लगा. इसके तीन साल बाद 1997 में पुरुष की भी मौत हो गई.

पार्टनर की मौत के बाद महिला ने अस्पताल प्रशासन से मृतक को पति बताते हुए अनुकंपा नौकरी और अन्य लाभ देने की मांग की. विवाह के सबूत के तौर पर उसने शादी का शपथपत्र पेश किया जिसे अस्पताल प्रशासन और फिर निचली अदालत ने नहीं माना. 

हाईकोर्ट ने दी नई व्यवस्था

इस मामले में हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि शादी के मामले में पर्सनल लॉ का लाभ लेने के लिए पक्षकारों को पर्सनल लॉ के प्रावधानों का पालन करना अनिवार्य है. शादी के मामले में स्पेशल मैरिज एक्ट का लाभ उठाने वालों को पर्सनल लॉ में मिले कानूनी अधिकारों का लाभ उठाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. अदालत के इस फैसले से साफ है कि मर्जी से लिवइन या किसी करार के तहत एक साथ रह रहे लोगों से जुडे ऐसे  मामलों में पुरुष और महिला के संविधान सम्मत नागरिक अधिकार तो सुरक्षित हैं लेकिन संपत्ति या पारिवारिक अधिकारों की गारंटी पर्सनल लॉ के तहत ही मिल सकती है और यह गारंटी तभी अक्षुण्ण रहेगी जब पर्सनल लॉ के प्रावधानों का विधिवत पालन किया जाए. 

अब समय आ गया है कि संसद को भारत में पारिवार और रिश्तों से जुडे मामलों में कानूनी अडचनों के लगातार बढने की घटनाओं को देखते हुए कानून बनाकर स्थिति को साफ करना चाहिए. समान नागरिक संहिता की लगातार तेज होती बहस के बीच विधायिका से अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादियों से जुडे मामलों में कानूनी स्थिति स्पष्ट करने की उम्मीद वाजिब है वरना खाप पंचायतों के खतरे यूं ही मंडराते रहेंगे.

ब्लॉग: निर्मल यादव

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